आसमान में घुमड़ते काले-घने बादलों की पीठ पर सवार ठंडी हवा शरीर को छूते ही दिल के तारों को झंकृत कर देती है। होठ खुद ब खुद तराने छेड़ देते हैं। दिलों के साज बजने लगते हैं। कुम्हलाई-मुरझाई पत्तियां कनकना जाती है। प्रकृति का आंचल निखर जाता है। तपती दहकती धरती बारिश की फुहारों से भींगकर हरियाली की घनी चादर ओढ़ लेती है। मोर पंख पसार नाचने लगते हैं। गोरैया घर की मुंडेर पर चहकते हुए मानों गाना गाती है। पानी में छई-छप-छई करता बाल मन कभी कागज की कश्ती संग अपने चहेतों से मिलने निकल पड़ता है। बारिश की बूंदे लोकगीतों की वाहक भी हैं और पोषक भी। शब्दों की माला गूंथने के लिए साहित्यकार भी बड़ी बेसब्री से सावन का इंतजार करते हैं। दिल्ली की बारिश का तो कहना ही क्या। हवा संग झूमते वृक्ष, चिड़ियों की चहचहाट, बिजली की गर्जना कला प्रेमियों के प्रेम को रवां कर देती है। इस आर्टिकल में हम बारिश की बूंदों संग कलाप्रेमियों के दिल में उमड़ते-घुमड़ते ख्यालों एवं साहित्य सृजन का रसास्वादन करेंगे।

अशरफी से भर जाता कुर्ता

इतिहासकार कहते हैं कि मुगल शासक जिस जगह से आए थे वहां मानसूनी सीजन नहीं होता था। लिहाजा, भारत में वो उत्सव की तरह मनाते थे। लाल किला परिसर में सावन-भादो इमारत इसकी गवाह है। यहां बारिश के दिनों में जमावड़ा लगता था। बादशाह द्वारा मुनादी करवा दी जाती थी कि बारिश के दरम्यान नज्में सुनेंगे। जिस किसी की नज्म बादशाह को पसंद आ जाती उसे सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जाता। बकौल आरवी स्मिथ इतनी अशरफी मिलती थी कि कुर्ता पूरा भर जाता था। शायर यहां से मालामाल होकर जाते थे। बस शर्त यह थी कि नज्म बारिश के ऊपर ही होने चाहिए। इस तरह लोग बारिश की बूंदों का आनंद उठा उसे शब्दों में गूंथने की कोशिश करते थे। बादशाह की महफिल में नज्म सुनाना भी किसी सम्मान में कम नहीं होता है। कारण, आम जनता संग दरबार के अधिकारी, कर्मचारी सभी मौजूद रहते थे।

राग की बारिश में भींगता मन

चर्चित गायक पद्मभूषण से सम्मानित राजन-साजन मिश्र कहते हैं कि संगीतकार, साहित्यकार बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतजार करते हैं। संगीतकार प्रकृति प्रेमी होते हैं। जिस तरह नायिका अपने पिया का इंतजार करती है ठीक उसी तरह साहित्यकार मौसम की गोद में छिपकर बैठे बारिश का रसास्वादन करने को बेताब रहते हैं। बिजली का गरजना, बादलों का गड़गड़ाना, गुर्राना और फिर बूंदों का धरती पर उतरना। ये सब प्रक्रियाएं साहित्य सृजन के लिए मूलभूत प्राण है। बादल का शोर सुन पपीपा भी शोर करता है। ऐसे में मल्हार राग से बारिश की अगन शांत होती है। वैसे तो मल्हार- मियां मल्हार, रामदासी मल्हार, गौड मल्हार, मीराबाई के मल्हार, चरजू की मल्हार और राग मेघ हैं। बारिश की अवधारणा मेघ मल्हार से होती है। मियां की मल्हार राग उमस से बेचैन मन को राहत देती है।

बादर, गरज नभ घोर

नभ घोर शोर पपीहरा।

यानी बादल का शोर सुनकर पपीहा भी शोर करने लगता है।

–आली-घुमड़

घन-घुमड़, बरसे रे ।।

-चमकन लागे री

नान्हीं नान्हीं बूंदरियां ।।

संगीतकारों की मानें तो एकताल विलंबित, झपताल (धीमा), झपताल (मध्य लय),एकताल दु्रत पर सादरा, छोटा ख्याल, बड़ा ख्याल, सादरा, सरगम की बंदिश श्रोताओं को बारिश का आनंद करा देती है।

त्रिताल पर छोटा ख्याल की बंदिश जब बूंदरिया बरसती है तो महसूस करिए श्रोता कैसे मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

बूंदरिया बरसे रे

अत घूर-घूर गरजत बदरा

पिया नाहीं घरवा।।

इसी तरह त्रिताल के ताल पर छोटा ख्याल

बरसत घोर घोर बदरा

दादूर, पपीहा, शोर मचावत

लरजे रे, मनुवारे।

मियां मल्हार के माध्यम से कैसे नायिका की बारिश में व्यथा बताई गई है। त्रिताल ताल पर छोटा ख्याल के सहारे नायिका अपने नायक को घर से बाहर जाने से रोकते हुए कहती है कि —

बलमा जाओ ना जाओ प्यारे

सावन की घन गरजत आए

पीहू पीहू पपीहा पी उठे रे

झपताल धीमा में जब सादरा बंदिश बारिश की भावपूर्ण वर्णन करती है–

कारी घटा घनघोर छाई

बिरहन नैनं अंसूवन झरन लागी।।

बारिश की बूंदों संग नृत्य का निखार

कत्थक नृत्यांगना लीना मनाकर विज कहती हैं कि बूंदों की झड़ी से नृत्य निखर जाता है। मेघ मल्हार, मियां मल्हार पर तालों में बंधा नृत्य नायक एवं नायिका की व्यथा जब सबके सामने रखता है तो बारिश बरबस ही भीगो देती है। मेघ मल्हार की बंदिश में घनघोर घटा छायी है। बारिश होती है तो नायिका अपने पिया को याद करती है। बिजली चमकने पर वो डर जाती है और कहती है कि अच्छा होता कि पिया साथ होते। वो निराश हो जाती है और बार-बार उस रास्ते को देखती है, जिससे पिया घर आते हैं। बकौल लीना मनाकर विज इसे नृत्य के जरिए पेश करते समय बारिश को महसूस करना जिंदगी का सबसे बड़ा रोमांच है। कहतीं हैं बारिश में विशेष परमिलू कवित्त का मंचन होता है। दरअसल, इसमें बारिश के पहले का माहौल नृत्य के माध्यम से पेश करना होता है। कैसे जंगलों में सुंदर आंख वाले हिरण अचानक डर जाते हैं। कोयल जो अब तक कू-कू की आवाज निकाल रही थी वो उड़ जाती है। क्यों कि घनघोर घटा छा चुकी है। उसी समय मोर नाचने लगता है। इन सबके बीच मानस मन को प्रदर्शित करना सुखद एहसास की तरह होता है।

फिजाओं में गूंजता लोकगीत

बारिश उल्लास बनकर सबको आनंदित करती है। उल्लास लोक गीतों के रूप में फिजाओं में घुल जाता है। बारिश फुहारों के बीच झूले का आनंद लेती महिलाएं सावन के गीत गाती हैं। हिंडोला राधा के वन गाढ़ो रे, झूलन आई राधिका प्यारी रे… की सुरीले गीतों में अब बॉलीवुड के भी गाने भी शामिल हो गए हैं। इन गीतों को गुनगुना लेने भर से महिलाएं अपनी खुशी का इजहार कर लेती हैं।

बारिश लोगों के मिजाज में ही मौज मस्ती का संचार कर देता है। जिस कारण बरबस ही चेहरों पर खुशी छा जाती है। यही वजह है कि इस मौसम में लोग हमेशा खुश रहते हैं। गाते गुनगुनाते रहते हैं। झूलों की मचक के साथ लोग थिरकते भी हैं। घर से बाहर इन दिनों पार्को में महिला मंडली झूले का आनंद लेती नजर आती हैं। महिलाओं का मानना है कि सावन में झूला झूलना मन की खुशी को बयान करती हैं।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here