मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बेटे मिर्जा जवांबख्त की शादी दिल्ली के लिहाज से कई मायनों में ऐतिहासिक थी। अगर कोई ज़ाहिर तौर पर देखे -जैसे किले के सिपाहियों के नए कमांडर कैप्टन डगलस की नज़रों में तो यह शादी बेहद शानदार और खुशी और मेलजोल का नमूना लगती थी बल्कि किले की डायरी से पता चलता है कि सिर्फ एक नाखुशगवार वाकेआ पेश आया था, जब बरात सुबह दस बजे किले वापस जा रही थी।
वलीदाद खां ने अपने मेहमानों के सामने दुल्हन का दहेज पेश किया था। अस्सी थालें कपड़ों की, दो थालियां जेवरात की, एक सुनहरी छपरखट, चांदी के बेशुमार बर्तन, एक हाथी और घोड़े जिन पर सोने के काम की जीन पड़ी थी और दो ऊंट ज़फ़र उसी वक्त दूल्हा-दुल्हन के साथ किले को वापस जाने के लिए रवाना हुए थे कि एक नानबाई ने दो-तीन बिस्कुट उस हाथी के सामने फेंके जिस पर मिर्ज़ा जवांबख्त सवार थे। हाथी बड़ी ज़ोर से बिदका और मुजरिम नानबाई को पकड़कर जेल में डाल दिया गया।
लेकिन यह ज़ाहिरी खुशदिली और मेलजोल सिर्फ धोखा था, जैसे बहुत शादियों में देखने को तो बहुत मिलाप और खुशहाली होती है लेकिन अंदर की सतह पर खूब उलझनें और विरोध पलते रहते हैं। बहादुर शाह जफर और ज़ीनत महल ने बरात में जो शानो-शौकत दिखाई थी वह अपने आप में बहुत अहमियत रखता था। यह सच है कि मुगलों के ज़माने में ऐसे जुलूस लोगों पर अपनी हुकूमत का रोब जमाने के लिए निकाले जाते थे। दो सौ साल पहले एक फ़्रांसीसी सैलानी और लेखक फ्रांकाई बरनिए ने एक शानदार और बेहद ठाठ के जुलूस का ज़िक्र किया है जिसमें शाहजहां की बेटी रौशन आरा को 1640 के दशक में गर्मियों के जमाने में कश्मीर ले जाया गया था।
वह लिखते हैं कि ‘इससे ज़्यादा शानो-शौकत के जुलूस की कोई कल्पना नहीं कर सकता। अगर मैं इस तरह की नुमाइशी शान को एक दार्शनिक बेपरवाही से न देखता होता तो मैं भी हिंदुस्तानी शायरों की तरह ख़्यालों की उड़ान में न जाने कहां पहुंच जाता।”
बहरहाल कश्मीर तो मुग़लों के कब्जे से कब का निकल चुका था बल्कि अब तो दो साल से मुगल दिल्ली के इर्द-गिर्द भी कहीं इस शान से सफर न कर पाए थे। उनकी सल्तनत इतनी घट गई थी जैसा कि इस मिसरे से ज़ाहिर होता है;
सल्तनत शाहे आलम
अज दिल्ली ता पालम
(यह साफ पता नहीं चलता कि यह दो मुगल शाह आलमों में से किसी के लिए कहा गया था या सैयद वंश के शाह आलम के लिए।)