दिलीप कुमार (dilip kumar) का असल नाम युसूफ खान (Muhammed Yusuf Khan) था। युसूफ खान हीरो नहीं बनना चाहते थे। उनकी ख्वाहिश थी कि पढ़ाई खत्म करने के बाद वो अब्बा के काम में हाथ बटांए। मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। पढ़ाई पूरी होने से पहले ही कुछ ऐसा हुआ, जिसने युसूफ खान की जिंदगी बदल दी। युसूफ को कालेज छोड़ना पड़ा। हुआ यूं कि मैट्रिक की पढ़ाई के बाद वो लिटरेचर पढ़ना चाहते थे, मगर अब्बा के दबाव में आकर साइंस लेना पड़ा। विल्सन कालेज में दाखिला लिया।

युसूफ फुटबाल केे बेहद शौकीन थे। वाे कालेज के अलावा प्रोफेशनली भी 15 रुपया प्रतिमैच फीस पर फुटबॉल खेलते थे। द्वितीय विश्वयुद्ध का भारत पर काफी असर पड़ा। युद्ध ने युसूफ के अब्बा के फल के बिजनेस पर बुरा असर डाला। कारोबार में घाटा होने लगा। दरअसल, प्रतिदिन 3-4 गाड़ियों की सप्लाई होती थी। लेकिन युद्ध के चलते सप्लाई घटकर एक से दो गाड़ी रह गई थी। फल सड़ने लगते। एक उपाय सूझा की गांव वालों को देकर जैम बनवाए लेकिन ये सब स्थाई उपाय नहीं थे। आर्थिक हालत जब बहुत खराब होने लगी ताे मजबूरन युसूफ खान को पढ़ाई छोड़ नौकरी करनी पड़ी। उन्होने पूणे में 36 रुपये की सैलरी में नौकरी शुरू की। छावनी में नौकरी करते हुए उन्होने देखा कि सेना केे जवान फल बाहर से खरीदकर ले आते हैं।

अधिकारियों से अनुमति लेकर युसूफ खान ने फल बेचना शुरू किया। पहले ही दिन 22 रुपये का मुनाफा हुआ। बहुत जल्द उन्होंने पार्टी समेत अन्य समारोह में सैंडविच बेचने का भी काम शुरू कर दिया। इस तरह एक समय युसूफ 1000 रुपये भी कमाने लगे थे। इस बीच एक नियम लागू हुआ कि छावनी में सरकारी दुकानें ही खुलेंगी, ईद वाले दिन उन्हेें अपने घर लौटना पड़ा।

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