बहादुर शाह जफर को दिल्ली के बहुत लोग सूफी पीर मानते थे। उनके कई शागिर्द और मुरीद थे। देहली उर्दू अखबार ने तो यह भी लिखा कि “वह अपने जमाने के माने हुए पीर हैं जिन पर खुदा की रहमत है। जफर उसी तरह का लिबास पहनते।

तख्त पर बैठने से पहले, अपनी जवानी के ज़माने में, वह एक ग़रीब दरवेश और आलिम की तरह सीधी सादी जिंदगी गुजारते थे। अपने तीनों छोटे भाइयों मिर्जा जहांगीर, सलीम और बाबर के विपरीत, जो हमेशा जर्क-बर्क लिबास पहनते। मेजर आर्चर ने 1828 में लिखा कि वह दुबले-पतले सादा शख्स हैं जो बिल्कुल मामूली कपड़े पहनते हैं और ‘एक गरीब मुंशी या भाषा के शिक्षक जैसे लगते हैं।”

जफर के सूफियानापन के दो पक्ष थे। एक शायर और दरवेश होने के नाते उन्होंने सूफी दिव्य शायरी के गहरे रहस्यों को अपने अंदर आत्मसात किया। लेकिन साथ-साथ वह लोकप्रिय इस्लाम के जादू और अंधविश्वासों को भी मानते थे। मिसाल के तौर पर वह समझते थे कि उनके सूफी आलिम और बादशाह होने की वजह से उनके पास बहुत असाधारण आध्यात्मिक शक्ति है। एक बार जब उनके एक अनुगामी को सांप ने काट लिया तो उन्होंने उसका तोड़ करने को उसको जहर की मुहर और पीने के लिए कुछ पानी फूंककर भेजा।” जफर को तावीज पर भी बहुत विश्वास था। खासतौर पर अपनी बवासीर की बीमारी के लिए। या बुरी नज़र से बचने के लिए।”

एक बार जब वह बीमार हुए तो उन्होंने कई सूफी पीर बुलवाए और उनसे कहा कि उनकी बेगमात का ख्याल है कि किसी ने उन पर काला जादू कर दिया है। इसलिए उन्होंने दर्खास्त की कि वह इसका असर ख़त्म करने के लिए कोई अमल करें ताकि यह शक दूर हो जाए। उन्होंने कागज पर लिखकर कुछ तावीज बादशाह को दिए और कहा कि वह इसको पानी में घोलकर पी लेंगे तो वह उनको बुरी नजर से बचाएंगे।”

इसी तरह चमत्कार करने वाले पीर-फकीर और हिंदू ज्योतिषी हमेशा उनके दरबार में पाए जाते थे और उनके कहने पर वह कभी भैंसों और ऊंटों की कुर्बानी कराते, कभी अंडे जमीन में गाड़ते और कभी काला जादू करने वालों को गिरफ्तार करवा लेते। और पेट का रोग दूर करने के लिए एक खास नग की अंगूठी पहने रहते।” और उनके मशवरे से वह अक्सर गरीबों को गायें और सूफी दरगाहों को हाथी अता करते और जामा मस्जिद के खादिमों को घोड़ा।”

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