दिल्ली के वाइट मुगल, जिन्होंने की भाईचारे की पहल
कहानी दिल्ली के सफेद मुगलों की
दिल्ली में ऐसे भी अंग्रेज थे, जो सफेद मुगलों के नाम से जाने जाते थे। जिन्होंने हमेशा दोनों तहज़ीबों के फर्क को दूर करने की कोशिश की थी, उनके लिए भी अंग्रेज़ों की यह निरंतर बढ़ती अशिष्टता और रवैया बहुत तकलीफदेह था। विलियम गार्डनर ने पूरी तरह मुगल दरबार की सहिष्णु और मेलजोल की संस्कृति को अपनाया था।
उसके लिए जेनिंग्स जैसे मिशनरी का हिंदुस्तानी अवाम पर ज़बरदस्ती अपना धर्म और तौर-तरीके लादना बहुत अफसोस की बात थी जो उसकी समझ से बाहर थी। और ख़ासतौर पर उसे इस बात पर बहुत नाराज़गी थी कि अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तानी नज़रिए से बिल्कुल संपर्क तोड़ लिया है। वह अपने एक रिश्तेदार को लिखते हैं:
“अंग्रेज बार-बार यहां के लोगों के बारे में अनजान होने की वजह से उनको नाराज कर रहे हैं। इससे ज्यादा जुल्म और नाइंसाफी पहले किसी शासन ने नहीं किया।
और यही जज़्बात ऑक्टरलोनी के भी थे। जिसको यह देखकर कि उसके मातहत बादशाह और उनके खानदान के साथ कैसा सुलूक कर रहे हैं, बहुत सदमा पहुंचा। उसने अपने हमदर्द विलियम फ्रेजर को लिखा: “
तैमूर घराने का सम्मान करने के बजाय उनको नफरत और अपमान के गहरे गढ़े में ढकेला जा रहा है। अगर हम इस तरह का घटियापन करेंगे तो किस तरह यहां कि लोगों में लोकप्रिय हो सकते हैं।
जब फैनी पार्क्स दिल्ली आई थी तो वह लाल किले के जनानखाने की एक उम्रदराज शहजादी से मिलने गई जो गार्डनर की रिश्ते की बहन लगती थीं। अंग्रेजी राज की शुरुआत में ऐसी मुलाकातें आम थीं। लेकिन 1840 के दशक के अंत तक अंग्रेज़ सोसाइटी इसे बहुत घृणित दृष्टि से देखने लगी। फैनी ने बाद में लिखाः
“मैंने सुना कि शहज़ादी से मुलाकात करने के लिए मुझ पर बहुत एतराज़ किए गए। उन लोगों की गरीबी देखी नहीं जाती, यह बादशाहों की नस्ल के लोग जो पहले ज़माने में मेहमानों के गले में मोतियों और जवाहिरात के हार डालकर उन्हें विदा करते थे।
अब जब हयातुन्निसा बेगम ने अपनी ग़रीबी के आलम में चमेली के फूलों का हार मेरे गले में डाला, तो मैं उनके सामने सम्मान से इस तरह झुक गई जैसे वह सारी दुनिया की मलिका हैं। लोग चाहे उनको कितनी ही नफरत की नज़र से देखते हों, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकती।
जरा देखो कि यह लोग क्या थे और क्या हो गए। एक दिन कोई मुझसे एक शाहजादे की फिजूलखर्ची की शिकायत कर रहा था और उसने कहा, “वह अपने वज़ीफे की रकम में गुज़ारा कर नहीं सकता और हमेशा कर्ज़दार रहता है। उस शाहजादे का वज़ीफा क्या था, सिर्फ बारह रुपए महीना ! जो हम अपने बैरे को देते हैं।
1830 तक फ्रेजर, गार्डनर और ऑक्टरलोनी जैसे “सफेद मुग़ल” नायाब होते जा रहे थे। उनकी जिंदगी के तौर-तरीके खत्म होते जा रहे थे। कंपनी से मिले हुए वसीयतनामों से मालूम होता है कि उन वसीयतों की तादाद घटती जा रही थी जिनमें हिंदुस्तानी बीबियों का ज़िक्र होता था। 1780-1785 को दौर में तीन वसीयतों में से एक में उनका नाम आता था लेकिन उसके बाद वह घटता गया और कम होते-होते 1805-1810 तक चार में से एक हो गया और 1830 में छह में से एक रह गया। और मध्य सदी तक वह भी गायब हो गया।
इस तरह के रिश्तों का खात्मा हिंदुस्तान आने वाली अंग्रेज़ औरतों की तादाद से कहीं ज़्यादा था, जिनकी तादाद दरअसल 1857 से पहले के बजाय 1857 के बाद ही नाटकीय रूप से बढ़ी। और यह कंपनी में भर्ती होने के कानून की तब्दीली और 1856 में सिविल सर्विस के नियमों के बदलने की वजह से हुआ। 1857 के बाद सिविल सर्वेंट यूनीवर्सिटी के फौरन बाद मुकाबले का इम्तेहान पास करके लगभग बीस-पच्चीस साल की उम्र में ही हिंदुस्तान आने लगे और उनमें से ज़्यादातर शादीशुदा थे। इसके विपरीत उससे पहले लड़कों को सोलह साल की उम्र से पहले ही कंपनी में नौकरी की दर्खास्त देनी पड़ती थी, इसलिए वह बहुत कमउम्री में और अकेले आते थे। इसलिए उनके हिंदुस्तानी औरतों से संबंध का इल्ज़ाम मेमसाहिबों को नहीं दे सकते थे जैसा कि स्कूल के बच्चों को पढ़ाया जाता रहा है।