मिली-जुली संस्कृति का नया रंग-दिल्ली की राजनीतिक स्थिति और किसी हद तक समाज बदलता रहा, मगर दिल्ली वाले हर इन्कलाब को सह गए। जब उन्नीसवीं सदी के अंत में दिल्ली के हालात में ठहराव आया तो दिल्ली की समाजी जिन्दगी उन्हीं पुराने पैमानों में ढलने लगी। जुमेरात (गुरुवार) को हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर जाते, मंगल को हनुमान मंदिर और इतवार को भैंरों मन्दिर पर हाज़िरी देते। रामलीला की सवारी में शरीक होते और फूलवालों की सैर के मेले में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते। वसंत का त्योहार मनाते। ईद और दीवाली पर मिले-जुले जलसे करके छोटी-बड़ी दावतें देते। उसी दौर में दिल्ली में मुहल्ले – मुहल्ले में बड़ी हवेलियों, दीवानखानों, सरायों, धर्मशालाओं और बाग़ों में मुशायरे बड़ी शान-शौकत से कराए जाते थे। ‘तफ़्ता’, ‘मजरूह’, ‘दाग़’, ‘हाली’, ‘आरजू’, ‘नौबत राय’, और ‘रासिख” की महफ़िलों के बाद एक नया वातावरण दिल्ली में स्थापित हो चुका था और मिली-जुली संस्कृति नए रंग में उभर रही थी। घर-घर होली की रंगपाशियों में मुस्लिम दोस्तों को बुलाया जाता था। जन्माष्टमी के त्योहार पर नाच-गानों की महफ़िलों में मुस्लिम संगीतकार और उस्तादों और पंडितों को निमंत्रित किया जाता था। ईदुलफ़ितर के मौके पर मुस्लिम घरों में कई-कई दिनों तक हिन्दुओं की दावतें होती रहती थीं।
हकीम अजमल खां, आसफ अली, मौलाना अहमद सईद ‘असीर’ देलहवी, पं. अमरनाथ मदन ‘साहिर’ देहलवी, अब्दुल्ला ओटवाल, रायबहादुर पं. जानकीनाथ मदन, रायबहादुर बंगाली मल, सेठ दीनामल सोमानी, संतनारायण गुड़वाले, सैयद वहीदुद्दीन ‘बेखुद’, सिराजुद्दीन ‘साइल’, पं. ब्रजकिशोर जुत्शी ‘शोर’, मुंशी महाराज बहादुर ‘बर्क’, ‘हैदर’ देहलवी, लाला श्रीराम (खुमख़ान- ए-जावेद के संपादक), पं. त्रिभुवन नाथ ज़ुत्शी ‘जार’ देहलवी, राशिदुल खैरी, ख़्वाजा हसन निजामी देहलवी, अज़ीज़ हसन बक़ाई, लाला सर श्रीराम, सर शंकर लाल, लाला मुरलीधर ‘शाद’, रायबहादुर माधव प्रसाद और सर स्वभाव सिंह चंद ऐसे बड़े नाम हैं जो इसी सभ्यता, संस्कृति, गोष्ठियों और सभाओं की पैदावार थे।
हकीम अजमल खां की शरीफ मंजिल बल्लीमारान में, मौलाना अहमद सईद देहलवी की हवेली कूचा नाहर खां में, आसफ अली की कूचा चेलान में, ख्वाजा अब्दुल मजीद की हवेली मटिया महल में, मुल्ला वाहिदी का मकान जामा मजिस्द के नजदीक, छुन्नामल वालों की कोठी चांदनी चौक में, नवाब ‘साइल’ देहलवी की हवेली लाल दरवाजा, लाल कुएं पर और सर श्रीराम और शंकरलाल की कोठी कर्जन रोड पर चंद ऐसे ही केंद्र थे जहां कवि और काव्यमर्मज्ञ इकट्ठा होते और शेर-ओ-शायरी भी होती साथ ही जीवन के अन्य विषयों पर चर्चा होती। ये महफिलें अपने आप में संस्थाएं भी थीं, लाइब्रेरी भी, अकादमी भी, क्लब भी और सभ्यता- शिष्टता, गुणज्ञता, आदर-सत्कार, उदारता और रख-रखाव आदि के मदरसे भी।
पं. अमरनाथ मदन ‘साहिर’ देहवली का दिल्ली के सांस्कृतिक जीवन में बड़ा महत्त्व था। उम्र अस्सी के करीब, ऊंचा कद, लंबी-चौड़ी दाढ़ी, उर्दू शायरी के आशिक और उस्ताद थे और फारसी में भी शेर कहते थे। पुराने रखरखाव वाले इन्सान थे और उनके अंगरखे और दस्तार को देखकर यही गुमान होता था कि मुसलमान हैं। दरअसल दिल्ली के पुराने दौर में दिल्ली के हिन्दुओं और मुसलमानों के लिवास और उनकी बोलचाल में कोई फर्क नहीं होता था। पं. दत्तात्रेय ‘कैफी’ और पं. त्रिभुवनप्रसाद ‘जार’ को भी देखकर और उनकी गुफ्तगू को सुनकर यही लगता था कि हिन्दू नहीं, मुसलमान हैं। उन दिनों हिन्दू और मुसलमान एक ही मिली-जुली संस्कृति में गुंथे थे।
पं. अमरनाथ ‘साहिर’ बहुत मिलनसार और अतिथि-परायण थे। एक बार कुछ लड़के रात के ग्यारह बजे उनके घर पहुंच गए। चूड़ीवालान से जो रास्ता बाजार सीताराम को जाता है उसके सिरे पर उनका बालाख़ाना (अट्टालिका) था। कुंडी खड़की तो पंडितजी हाथ में लालटेन लिए हुए जीने से उतरे और लड़कों से पूछा, “कैसे जहमत फरमाई ?” लड़कों ने कहा, “हमें आपका कलाम सुनने का इश्तियाक (लालसा) है। सुबह की गाड़ी से वापस जाना है।” पंडितजी ने फरमाया, “क्या मुजाइका (हर्ज) है?” और सहर्ष सबको अपने साथ ऊपर ले आए। कमरा खोलकर आराम से बिठाया, उनकी खातिर तवाजो की और अपना कलाम सुनाकर रुखसत करने नीचे तक आए।
पंडितजी सालाना मुशायरे बड़े पैमाने पर कराते थे मेहमानों के ठहरने और खाने-पीने का इन्तजाम करते दूर-दूर से शायर आते थे और दिल्ली के इस मुशायरे की धूम मच जाती थी।
मीर नाजिर अली देहलवी, ‘तांबा’ देहलवी, ‘बेरपुद देहलवी, मुल्ला बाहिद देहलवी, अल्लामा राशिदुल खेरी देहलवी और ख़्वाजा हसन निजामी वगैरा भी ऐसी हस्तियाँ थीं जो व्यक्ति होते हुए भी संस्था का दर्जा रखते थे। उनके दम से दिल्ली के जीवन में वह रंग और वह आब-ताब थी कि उसकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती। साहित्य उन सबका ‘ओढ़ना-बिछौना था और उन सबका एक विशिष्ट व्यक्तित्व था। ये सब लोगों से प्यार करते थे और लोग इनसे प्यार करते थे। पुरानी सभ्यता, शराफत और रवादारी का नमूना थे चेहरों से शराफ़त और गंभीरता टपकती थी। ख्वाजा हसन निजामी की तो निराली सजधज थी। हज़ारों के जनसमूह में उन पर नज़र पड़ती थी। सिर पर पीली मुकुटनुमा टोपी, कंधों पर जुल्फें, सुनहरी फ्रेम की ऐनक, होंठों पर लाख जमी हुई, घुटनों तक अंगरखा और आँखों में चुंबक-का-सा आकर्षण, लिखने और बोलने दोनों पर अधिकार था।
एक महफ़िल में काव्य-प्रेमी हिन्दू और मुसलमान दोस्त शामिल थे। एक पंडितजी ने फ़रमाया, तुलसी का यह दोहा धार्मिक सहिष्णुता का सही रास्ता बताता है-
तुलसी या संसार में भांति भांति के लोग
सबसों हिल मिल चालिए नदी नाव संयोग।
पंडितजी दोहा सुनाकर बोले कि ऐसा ही कोई उर्दू का शेर सुनाइये जिसमें यही उपदेश हो और जाति-पाति और धर्म का भेद न रहे। फ़ौरन एक मौलवी साहब ने ग़ालिब का यह मशहूर शेर पढ़ा-
हम मुहाविद हैं हमारा केश है तर्क-ए-रुसूमी
मिल्लते’ जब मिट गई अजा-ए-ईम हो गई
एक साहब बोले, यह क्या कबीर का दोहा है-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर? तो एक साहब ने अल्लामा दत्तात्रेय ‘कैफ़ी’ के दो शेर फ़ौरन सुना दिए। अल्लामा कैफ़ी’ खुद भी उस महफिल में मौजूद थे-
हद-ए-जुगराफिया से शेर की दुनिया है जुदा
दूर कैलाश से दो गज भी यहां दूर नहीं
अदब-ओ-शेर का आलम है वो वहदत आईन
कि जहां काफिर-ओ-दीदार का मजकर” नहीं।।
सब तरफ से वाह-वाह बुलंद हुई। इतने में साहिब-ए-खाना की तरफ से पानों की तश्तरियां आ गई। लाला हरनाम दास जौहरी की ओर से चांदी के वरक लगा हुआ सेव का मुरब्बा पहले से ही आ चुका था और तश्तरियों में रखा हुआ था। मौलवी अहमद सईद साहब के यहां से हब्शी हलवा, सोहन की टिकियां आ चुकी थीं। शरबत आदि के लिए ग्लास, अंदरसे की गोलियों, फेनी वगैरा अंदर जनानखाने से बच्चे ला चुके थे। कहकहों के दरम्यान खाना-पीना शुरू हो गया और शेर-ओ-शायरी के दौर के बाद यह मजलिस बरखास्त हो गई मगर साहिब-ए-खाना ने एक-दो निजी दोस्तों को रोक लिया। दीवानखाने में रौनक देर तक कायम रही।
महफिल के नियम-कायदे ऐसे थे कि जो जिस पहलू बैठ गया, बैठ गया। बार-बार पहलू या बैठक बदलना तहजीब के खिलाफ था। अब जो उठे हैं तो ज्यादातर बूढ़े बुजुर्गों की तो कमर टेढ़ी हो गई। मगर महफिल में मजा आया उसके मुकाबिले में यह बेआरामी कोई माने नहीं रखती थी। साहिब-ए-खाना बाहर तक आए
हैं और सब मेहमानों से कह रहे हैं, ‘जहमत फरमाई का शुक्रिया।’ सबसे अलग-अलग ‘शब बखैर’, ‘आदाब’ और ‘बंदगी’ की गई।
डॉ. ताराचंद ने अपने एक लेक्चर में खुसरो और ग़ालिब का जिक्र करते हुए कहा था-
खुसरो और गालिब ये दो आदमी ऐसे थे जिन्हें न सिर्फ अपने वतन से प्यार था बल्कि जो जाति-पाति और धर्म से ऊपर उठकर इंसानी दोस्ती में विश्वास रखते थे।
यह खुसरो ही थे जिन्होंने हिन्दुओं के बारे में इन शब्दों का प्रयोग किया था-
हर कौम रास्त राहे, दीन-ओ-किब्लागाहे।।
दिल्ली की महफिले, दीवानखानों की वे रौनकें, लोगों का वह रखरखाव, शराफत और मुरौवत अब एक याद बनकर रह गई हैं। वे सूरतें जो कब की खाक में मिल चुकी हैं, अब कभी नजर नहीं आएंगी। एक-एक शख्सियत एक-एक संस्था बल्कि एक-एक दुनिया थी। ऐसे भी लोग थे जिनके लिए निष्ठा, सज्जनता, उदारता और भद्रता ही सब कुछ था और जो मिल-जुलकर जीने को सबसे बड़ी ख़ुशी समझते थे। और दिल्ली तो वह सरजमीन है जिसकी ख़ाक तले एक-दो नहीं ऐसी सैकड़ों हस्तियां थीं, जो सो रही हैं। हर शख्स अपने आप में यक्ता, एक नगीना, एक आबदार गौहर था। वे सब लोग एक मिली-जुली संस्कृति की पैदावार थे, जिसकी बुनियाद प्रेम और निष्ठा पर थी।