वह सभ्यता और रखरखाव जो दिल्ली में प्राचीन काल में लोगों में था शायद अब कभी देखने में नहीं आएगा। शिष्टता, ऊंचे तौर तरीके, भद्रता का व्यवहार, भाईचारे की भावना, अत्यधिक विनम्रता और सहिष्णुता दिल्ली की सभ्यता की प्रमुख विशेषताएं थीं। दिल्ली वालों की पहचान इन्हीं से होती थी। फिर ऐसा भी नहीं था कि ये किसी विशेष वर्ग के ही लक्षण हों। दिल्ली के हर छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, शिक्षित और अशिक्षित में यही सभ्यता और शिष्टता मिलती थी। इस सभ्यता के बनने और संवरने में सदियां लग गई थी। एक मिली-जुली सभ्यता सदियों के परस्पर मेलजोल से पैदा हुई थी और दिल्ली के लोगों की जिन्दगी में इन सबका अक्स दिखाई देता था-
देखो निगह-ए-शौक़ से दिल्ली के नज़ारे
तहजीब की जन्नत है यह जमना के किनारे
दिल्ली वालों को अपनी सभ्यता और अपनी भाषा दोनों पर गर्व था। उर्दू का प्रचलन था और उसकी बुनियाद वही बोली थी जो दिल्ली और मेरठ के इलाकों में मुद्दतों से बोली जाती थी। दिल्ली की सभ्यता और उसकी टकसाली भाषा का चोली-दामन का साथ रहा है और एक की दूसरे के बिना कल्पना नहीं की जा सकती। ज्यों-ज्यों उर्दू का विकास हुआ यह दिल्ली वालों की ज़िन्दगी और तहज़ीब का एक अटूट हिस्सा बन गई। उर्दू से पहले दिल्ली में सरकारी भाषा फ़ारसी थी। पढ़े-लिखे लोग फ़ारसी बोलते और लिखते थे। फ़ारसी के अनेक शायर दिल्ली में थे। इस भाषा ने भी दिल्ली की सभ्यता का परिष्कार किया था। दिल्ली के लोग बहुत समय तक फ़ारसी भाषा का प्रयोग करते रहे।
दीवानखाने
मुलाकातियों को दीवानखाने में बिठाया जाता था और उन्हें झुककर ‘आदाब अर्ज’, ‘तस्लीमात’ और ‘बंदगी’ वगैरा कहा जाता था। मुसलमान हिन्दू दोस्तों और मेहमानों को ‘अजई जानिब राम-राम’ (मेरी ओर से)… भी कहते थे। बैठने के बाद मुलाक़ाती अपनी उम्र, हैसियत और संबंध के अनुरूप ‘नवाजिश’, ‘करम’, ‘शुक्रिया’ और ‘इनायत’ वग़ैरा भी कहते थे। बातचीत में मेजबान और मेहमान दोनों भद्रता का व्यवहार करते थे। बुलंद आवाज में बोलना, बात काटना और अपनी बात पर अड़े रहना बेअदबी या अशिष्टता के लक्षण समझे जाते थे। गुफ्तगू शुरू करने से पहले एक-दूसरे की खैरियत मालूम की जाती थी और मिजाज पूछा जाता था। इसके लिए बहुत ही शिष्ट ढंग अपनाया जाता था, जैसे- “मिजाज-ए-मुबारक या मिजाज शरीफ’, ‘घर में सब खैरियत से तो हैं वग़ैरा वगैरा।
दीवानखाने खालिश हिन्दुस्तानी ढंग से सजे होते थे-फर्श पर सफेद चाँदनी विछी होती और चाँदनी के चारों कोनो पर लोहे या संगमरमर के गुंबदनुमा मौरी फ (भारी पत्थर) घरे होते उजली-उजली चाँदनी पर चारों तरफ मेहमानों के बैठने के लिए गावतकिए रखे होते गावतकियों पर हर रोज के इस्तेमाल के लिए सफेद ग़िलाफ़ चढ़े रहते लेकिन खास-खास मौकों पर रेशमी या कारचीवी ग़िलाफ़ चढ़ा दिए जाते थे। सदर मुक़ाम पर ईरानी कालीन बिछे हुए होते और मसनद के ऊपर दीवार में एक खुशनुमा ताक़ बना हुआ होता जिसमें एक आईना लगा हुआ होता। छत में झाड़-फानूस और डियाँ लटकी हुई होती।
दीवानखाना मर्दाना बैठक का काम तो देता ही था मगर तरह-तरह की महफ़िलें और मजलिसें भी उसी में हुआ करती थीं यहाँ घर की औरतें नहीं आती थीं। कभी ‘वैत बाज़ी’ भी होती, कभी साहित्यिक गोष्ठियाँ जमतीं, कभी ताश पच्चीसी या शतरंज की बाजियों होती। कभी तिलिस्म होशरुवा की दास्तानें सुनाई जाती, कभी गाने-बजाने की महफिल जमती तो कभी नाच और मुज़रा भी हो जाता। ऐसे मौकों पर दीवानखाना खूब सजाया जाता और अलग से भी कुछ इतिजाम किए जाते हुक्के और पेचवान लग जाते। गुलाबपाश से गुलाब छिड़का जाता मोतिया के गजरें और कंठे गलों में डाले जाते चंगेरियों में चमेली के फूल और इत्र में भीगी हुई रुई रखी जाती। चाँदी के खासदानों में लालचंद की साफियों में देसी पान की गिलोरियाँ रखी जाती इलायची, जर्दा और क्रिवाम वगैरा अलग से रखे जाते पान खाए जाते, हुक्के के कश लगते, खमीरे की लपटें उठतीं महफिल जमती, आपस में बोलियाँ- टोलियाँ होतीं, आवाजें कसी जाती, जिला जुगत’ और फ़ब्तीबाजी होती और खुशगप्पियाँ और नोंक-झोंक में सारा दिन या सारी रात कट जाती