-जनता पार्टी सरकार ने पुरस्कारों को देना कर दिया था बंद
जनता पार्टी की सरकार ने इन पद्मश्री, पद्म भूूषण आदि पुरस्कारों को इस आधार पर भंग कर दिया था कि ये ब्रिटिश राज के दिनों की उपाधियों की तरह थे। जब तक जनता पार्टी सत्ता में रही, ये पुरस्कार नहीं दिए गए। जनता पार्टी के पतन के बाद ये पुरस्कार फिर जोर-शोर से उभर आए, और इनके साथ ही चमचों और खुशामदियों की नस्ल भी। एक बार फिर ये पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं के लेटर-हेडों और विजिटिंग कार्डों पर दिखाई देने लगे।
लेकिन कई ऐसे लोग भी थे जिन्होंने इन पुरस्कारों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। आजादी के बाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री का पद संभालने वाले मौलाना अबुल कलाम आजाद ने देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ स्वीकार करने से इनकार कर दिया। कहा जाता है कि जब उनसे इस सम्मान के बारे में पूछा गया तो उन्होंने नेहरू से कहा कि में जो लोग इन पुरस्कारों का फैसला करते हैं, उनका अपने-आपको पुरस्कार देना हर तरह से अनुचित था।
लेकिन उनकी इस आपत्ति के बावजूद सरकार ने अपने रवैये में कोई बदलाव नहीं किया और दूसरे कांग्रेस नेताओं को पुरस्कार देने जारी रखे। कई वर्ष बाद, आजाद को मरणोपरांत “भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया, जिसका मूल नियमों में कोई प्रावधान नहीं था।
पिछले कई वर्षों से विभिन्न कांग्रेस सरकारों द्वारा पुरस्कृत व्यक्तियों की सूचियों के विश्लेषण से यह साफ हो जाता है कि पार्टी के लिए अनुकूल व्यक्तियों को वरीयता दी जाती रही है। आलोचक या विरोधी इन सूचियों में कहीं दिखाई नहीं देते। उदाहरण के लिए सोशलिस्ट नेता राममनोहर लोहिया या मार्क्सिस्ट नेता ई. एम. एस. नम्बूदरिपाद के नामों पर कभी विचार तक नहीं किया गया। भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने भी कुछ बेहतर नहीं किया। उसने पुरस्कृतों की सूची का भगवाकरण कर दिया और आरएसएस प्रचारकों को भी पुरस्कार थमा दिए। वाजपेयी सरकार ने गांधीवादी सिद्धराज ढड्डा को पद्म विभूषण देना चाहा तो उन्होंने इसे ठुकरा दिया। कुछ पत्रकारों ने भी इन पुरस्कारों को स्वीकार करने से इनकार किया है, जिनमें स्वर्गीय निखिल चक्रवर्ती प्रमुख हैं।
न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर ने पद्म भूषण स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इतनी उम्र बीत जाने पर भी मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि रविन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिशों द्वारा दी गई ‘सर’ की उपाधि क्यों स्वीकार कर ली थी। यह सच है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने इसे लौटा दिया था। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार ही क्यों किया था? स्वतंत्रता सेनानियों को यह रास नहीं आया था और कम-से-कम उनकी नजरों में टैगोर का कद काफी घट गया था