-आखिर क्यों और कैसे हुआ भारत-पाकिस्तान युद्ध

कच्छ में युद्ध विराम के समझौते की अभी स्वाही भी नहीं सूखी थी कि कश्मीर सीमा पर गोलीबारी की घटनाएँ ( महीने में लगभग 300 बार शुरू हो गई। गुप्तचर विभाग की सूचनाओं के अनुसार पाकिस्तान कश्मीर में घुसपैठ के इरादे से घुसपैठियों को ट्रेनिंग देने में जुटा हुआ था। लेकिन ये सूचनाएं स्पष्ट नहीं थीं और एक-दूसरे से मेल नहीं खाती थीं। इसलिए पाकिस्तान की तैयारियों का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता था। फिर भी यह निश्चित था कि सीमा के उस पार कुछ-न-कुछ खिचड़ी जरूर पक रही थी।

हालात का जायजा लेने के लिए 2 अगस्त, 1966 को श्रीनगर में सेना के अधिकारियों की एक उच्चस्तरीय बैठक हुई। इसमें खुद सेना प्रमुख भी मौजूद थे। हैरानी की बात यह थी कि यह मीटिंग इस नतीजे पर पहुंची कि पाकिस्तान से फिलहाल कोई खतरा नहीं था। इसके दो दिन बाद ही सेना अधिकारियों को पाकिस्तान की तरफ से घुसपैठ के स्पष्ट संकेत मिलने शुरू हो गए।

पुलिस ने उन्हें बताया था कि मुहम्मद दीन नामक एक लड़के ने श्रीनगर से 40 मील दूर गुलमर्ग में दो हथियारबन्द अजनबियों से मुलाकात की जानकारी दी थी। वह अपने मवेशी चरा रहा था तो हरी सलवार-कमीजें पहने इन अजनबियों ने उसे 400 रुपए का लालच देते हुए भारतीय चौकियों के बारे में जानकारी देने के लिए कहा था। इसी तरह, जम्मू के मंडर इलाके में वजीर मुहम्मद नामक एक स्थानीय नागरिक ने कुछ संदिग्ध हथियारबन्द व्यक्तियों से मुलाकात की जानकारी दी थी। दोनों मामलों में, पाकिस्तानी घुसपैठियों का साथ देने की बजाय स्थानीय नागरिकों ने पुलिस को सूचित कर दिया था।

सेना ने फौरन ही अपने गश्ती दलों को घुसपैठियों की खोज में लगा दिया। कुछ जगह घुसपैठियों के साथ उनका आमना-सामना भी हुआ, और दोनों तरफ से गोलीबारी के बाद घुसपैठिए युद्ध-विराम रेखा के उस तरफ भाग खड़े हुए। तीन दिन बाद, 8 अगस्त, 1965 को, दो पाकिस्तानी अधिकारी कैप्टन गुलाम हुसैन और कैप्टन मुहम्मद सज्जाद पकड़े गए। पूछताछ के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि भारी पैमाने पर घुसपैठ की योजना थी। उन्होंने बताया कि वे उस टीम का हिस्सा थे जिसे जम्मू-कश्मीर पर जबर्दस्ती कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके पास कुछ ऐसे दस्तावेज भी मिले जिनसे उनके बयानों की पुष्टि होती थी।

इन दस्तावेजों से पता चलता था कि कश्मीर में भारी पैमाने पर घुसपैठ की यह योजना जनवरी 1965 में ही बना ली गई थी। उसी समय राष्ट्रपति का एक अध्यादेश जारी करके ‘मुजाहिद लश्कर का गठन किया गया था, और मई 1965 में मेजर जनरल अख्तर मलिक की देखरेख में इसकी ट्रेनिंग शुरू हो गई थी। हमलावरों को 1 से 5 अगस्त 1965 के बीच छोटी-छोटी टोलियों में कश्मीर में दाखिल होना था, और फिर कुछ चुनी हुई जगहों पर इकट्ठे होकर कश्मीर पर कई तरफ से हमला कर देना था। 8 अगस्त को पीर दस्तगीर साहिब का उर्स होने के कारण लोग हजारों की संख्या में श्रीनगर में इकट्ठे होते थे। घुसपैठियों को उम्मीद थी कि श्रद्धालुओं की भीड़भाड़ में वे अपने-आपको आसानी से छिपा लेंगे।


अगले दिन, जो शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी का दिन भी था, हमलावरों ने श्रीनगर में आयोजित विरोध-प्रदर्शन में शामिल होने की योजना बना रखी थी। इसके बाद उन्हें खुलकर सामने आ जाना था और रेडियो स्टेशन, हवाई अड्डे और अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्रों पर कब्जा कर लेना था। घुसपैठियों की कुछ टोलियों को श्रीनगर को भारत से जोड़नेवाली सड़क को नष्ट करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसके बाद हमलावरों को एक ‘इन्कलाबी काउंसिल’ गठित करके अपने-आपको कश्मीर की कानूनी सरकार घोषित कर देना था और रेडियो पर अन्य देशों, खासकर पाकिस्तान से अपनी सरकार को मान्यता देने की अपील करनी थी। 9 अगस्त, 1965 को रेडियो पर यह ‘प्रसारण’ होते ही पाकिस्तान को पूरे जोर-शोर से कश्मीर पर चढ़ाई करने का संकेत मिल जाता।


घुसपैठियों की जल्दी धर-पकड़ से सरगर्मियों में अचानक तेजी आ गई कश्मीर की सीमा-रेखा पर जगह-जगह से घुसपैठ की कोशिशें शुरू हो गई। घाटी पर कब्जा करने के इरादे से अलग-अलग टोलियों को अलग-अलग काम संपि जा रहे थे-पुलों को उड़ाना, संचार लाइनों को ध्वस्त करना, सैनिक अड्डों पर हमले करना, और पाकिस्तान से हमदर्दी रखनेवाले स्थानीय लोगों में हथियार और गोला-बारूद बाँटना, वगैरह।

हमलावर मिशनरी भावना से अपने मकसद में जुटे हुए थे। उन्हें उम्मीद थी कि स्थानीय जनता से भी उन्हें भरपूर सहयोग मिलेगा, जिसे वे ‘आजाद’ करवाने आए थे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। कश्मीरी इन घुसपैठियों की बातों में नहीं आए और इनसे दूर ही रहे। 8 अगस्त को घुसपैठिए श्रीनगर के बाहरी इलाकों तक पहुँच गए तो राज्य सरकार के हाथ-पाँव फूल गए। उसने भारत सरकार को राज्य में मार्शल लॉ लगाने का सुझाव दिया। केन्द्र ने इस सुझाव पर अमल करते हुए सेना को पूरे कश्मीर को अपने नियंत्रण में ले लेने के लिए कहा। लेकिन सेना के कमांडरों ने केन्द्र सरकार को ऐसा कोई कदम न उठाने की सलाह दी और उसे भरोसा दिलाया कि हालात इतने खराब नहीं थे जितने राज्य सरकार दिखाने की कोशिश कर रही थी।


8 अगस्त, 1965 की रात को पहली बार कश्मीर की पूरी युद्ध-विराम रेखा भारी और लगातार गोलाबारी से थरथरा उठी। पुच्छ इलाके में पाकिस्तान ने 25 पाउंड की तोपों से गोले दागे। उसी रात लगभग 3000 घुसपैठियों ने ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर अचानक हमला बोल दिया, हालाँकि कोई जानी नुकसान नहीं हुआ। पाकिस्तान अपने रेडियो पर और अखबारों में यही राग अलापता रहा कि जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हो रहा था वह ‘स्थानीय विद्रोह’ था और पाकिस्तान का इसमें कोई हाथ नहीं था।


अगली रात, यानी 9-10 अगस्त की रात, पिछली रात के मुकाबले काफी शान्त रही। उस रात पाकिस्तान लौट रहे कुछ घुसपैठियों को गोलियों का निशाना बनाया गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि घुसपैठिए पीछे लौटने के लिए मजबूर हो गए थे। भारतीय सेना के कड़े जवाब के सामने उन्हें मुँह की खानी पड़ी थी और अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। पश्चिमी कमान का नेतृत्व करनेवाले लेफ्टि. जनरल हरबख्श सिंह ने सरकार को भेजी


गई अपनी रिपोर्ट में कहा था पाकिस्तानियों ने माओ-त्से-तुंग से सीख लेते हुए ‘मुक्ति आन्दोलन’ के नाम पर जम्मू और कश्मीर में बगावत भड़काने की योजना बनाई थी। लेकिन इस चीनी सिद्धान्त को लागू करने के मामले में पाकिस्तानी नेता भारी गलती कर बैठे और मात खा गए। इस तरह के विद्रोह को सफल बनाने के लिए एक मजबूत संगठन, विस्तृत योजना, उच्चस्तरीय प्रशिक्षण, आक्रामक नेतृत्व और स्थानीय जनता के भरपूर सहयोग की जरूरत होती है। इन मूलभूत तत्वों के बिना किसी भी मुक्ति आन्दोलन का विफल होना निश्चित है, जैसाकि जम्मू और कश्मीर में हुआ।


इस बीच नई दिल्ली ने पाकिस्तानी घुसपैठ के खिलाफ अपने कूटनीतिक प्रयास तेज कर दिए थे। अमरीका में भारत के राजदूत बी. के. नेहरू ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट डीन रस्क से मिलकर उन्हें पाकिस्तान की शरारत की जानकारी दी। अन्य देशों में भी भारत के राजदूतों ने विदेशी नेताओं का ध्यान इस तरफ खींचा और उन्हें बताया कि युद्ध-विराम रेखा का घोर उल्लंघन करते हुए पाकिस्तान भारी पैमाने पर घुसपैठियों को बढ़ावा दे रहा था और स्तानी सेना अधिकारी उनका नेतृत्व कर रहे थे। दूसरी तरफ, पाकिस्तान का कहना था कि उसका कोई भी सैनिक इस कार्रवाई में शामिल नहीं था। पाकिस्तान में भारत के हाई कमिश्नर केवल सिंह विदेश मंत्री भुट्टो से मिले तो उन्होंने साफ-साफ कहा कि यह जम्मू-कश्मीर के अपने लोगों की ‘बगावत’ थी।

“भारत की शिकायत पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने स्थिति को ‘शान्ति के लिए ‘खतरनाक’ ठहराते हुए सिर्फ इतना किया कि कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र के सैन्य पर्यवेक्षकों के प्रमुख लेफ्टि. जनरल आर. एच. निमो को विचार-विमर्श के लिए बुला लिया। उनका कहना था कि युद्ध-विराम का समझौता दोनों देशों की सेनाओं तक सीमित था और यह नागरिकों पर लागू नहीं होता था, भले ही वे हथियारबन्द हों। हालांकि बाद में अपनी रिपोर्ट में उन्होंने स्वीकार किया कि हथियारबन्द पाकिस्तानी घुसपैठियों ने युद्ध-विराम रेखा को पार किया था और उनका इरादा महत्त्वपूर्ण संचार केन्द्रों को ध्वस्त करना था।

शास्त्री सोवियत प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन का एक पत्र पाकर दंग रह गए। 4 सितम्बर, 1965 को लिखे गए इस पत्र में कोसिगिन ने भारत का पक्ष लेने की बजाय लिखा था कि ‘यह समय सही या गलत का फैसला करने का नहीं है। यह समय सैनिक कार्रवाइयों को फौरन खत्म करने, टैंकों को रोकने और तोपों को खामोश करने का है।” उन्होंने नई दिल्ली और रावलपिंडी को एक समान दोषी ठहराते हुए उन पर ‘अमरीकी साम्राज्यवाद’ का खिलौना बनने का आरोप लगाया। भारत की तरफ सोवियत सुझाव के दिन सचमुच ही लद गए थे।


वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि सेना प्रमुख जनरल जे.एन. चौधरी ने मुझे बताया था 5 मई, 1965 के बाद से ही में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर हमला किए जाने की स्थिति में जवाबी कार्रवाई की योजना बनाने में जुटा हुआ था। जिस दिन पाकिस्तान ने अपनीनियमित सेनाओं, पैदल सैनिकों और शस्त्रों को जम्मू सेक्टर में तैनात किया, मैं कश्मीर में था। मैं दिल्ली लौट रहा था तो मिलिट्री ऑपरेशंस के निदेशक विमान में मेरे साथ थे और विभिन्न टुकड़ियों को भेजे जानेवाले ‘सिग्नल’ लिखने में व्यस्त थे। विमान से उतरते ही उन्होंने ये सिग्नल भेज दिए और में रक्षा मंत्री से मिलने चल पड़ा। उन्होंने मेरी कार्रवाई का समर्थन किया। इसके बाद मैंने प्रधानमंत्री को भी इसकी सूचना दे दी। पाकिस्तान के रवैये से निराश होकर शास्त्री अब उस खेमे में शामिल हो चुके थे जो पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात कर रहा था। पाकिस्तान ने 1 सितम्बर, 1965 को अखनूर-जम्मू सेक्टर में बुद्ध-विराम रेखा का उल्लंघन करते हुए भारी पैमाने पर हमले की शुरुआत कर दी थी।


दो दिन बाद 3 सितम्बर, 1965 को शास्त्री ने भारतीय सेनाओं को पंजाब में अन्तर्राष्ट्रीय सीमा को लाँघकर पाकिस्तान में कूच करने का आदेश दिया। असली हमला 6 सितम्बर को हुआ। यह एक दिन पहले ही हो जाता, लेकिन भारतीय वायुसेना पहले दुश्मन के ठिकानों को ध्वस्त कर देना चाहती थी। पर उसने मुश्किल से ही कुछ किया। उल्टे 6 सितम्बर की दोपहर को पाकिस्तानी वायुसेना ने पठानकोट हवाई अड्डे पर हमला करके भारत के 13 विमानों को ध्वस्त कर दिया।


लड़ाई के बाद मैंने शास्त्री से पूछा था कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा को लाँघने के आदेश असल में किसने दिए थे। उनका दो टूक जवाब था, “मैंने दिए थे।” उन्होंने कहा कि जब उन्होंने सेना को पाकिस्तान में कूच करने का आदेश दिया तो जनरल चौधरी और उनके साथी दंग रह गए थे। लेफ्टि. जनरल हरबख्श सिंह ने मुझसे कहा था, “सबसे छोटे कद के आदमी के इस सबसे बड़े आदेश को भारतीय सेना कभी नहीं भुला सकती ?” 1966 में, नेहरू के जन्म-दिवस (14 नवम्बर) की वर्षगाँठ से कुछ दिन पहले, मैं इन्दिरा गांधी से मिला था तो मैंने उनसे पूछा था कि सेना को पाकिस्तान में घुसने का आदेश किसने दिया था। उनका जवाब था, “यह हमारा फैसला था, सुरक्षा मामलों पर गठित केबिनेट समिति का। जब सेना के कमांडरों ने हमसे कहा कि कश्मीर पर दबाव कम करने के लिए पाकिस्तान को दूसरे मोर्चों पर उलझाना जरूरी था तो शास्त्री ने सेना की सलाह को स्वीकार कर लिया ।” मैंने उनसे पूछा कि इस स्थिति में उनके पिता क्या करते। “वे भी सेना के कमांडरों की सलाह पर अमल करते,” उन्होंने जवाब दिया। लेकिन मेरा अपना खयाल था कि नेहरू सही और गलत के प्रश्न में उलझे रहते और अन्तर्राष्ट्रीय सीमा को लाँघने का आदेश न दे पाते।


कुछ आलोचकों का कहना था कि शास्त्री अपने ‘ठिगने कद और हस्ती’ के कारण कुछ बड़ा और अनूठा करने के इच्छुक थे, ताकि उनकी एक मजबूत छवि निर्मित हो सके। इसीलिए उन्होंने पाकिस्तान से लड़ाई की यह सच है कि पाकिस्तान से लड़ाई के बाद वे पूरे देश के हीरो बन गए। इससे पहले जब सिनेमाघरों में उनकी डॉक्यूमेट्रियों दिखाई जाती थीं तो लोग उनकी हँसी उड़ाते थे। लड़ाई के बाद उनका कद बहुत ज्यादा ऊँचा हो गया।

लेकिन यह भी सच है कि शास्त्री के सामने बहुत कम विकल्प थे। उनके लिए दूसरा मोर्चा खोलना जरूरी था, क्योंकि कश्मीर के छम्ब सेक्टर और पुंच्छ-रजोरी और जम्मू-श्रीनगर में पाकिस्तानी सेना गिनती में कहीं ज्यादा थी और उसकी मोर्चाबन्दी भी मजबूत थी। घाटी से भारत को जोड़नेवाली एकलौती सड़क खतरे में थी। अगर यह रास्ता काट दिया जाता तो जम्मू और कश्मीर में मौजूद भारतीय सेना अलग-थलग पड़ जाती। भारतीय सेना को वहाँ बहुत मुश्किल इलाकों में काम करना पड़ रहा था और वह सिर्फ हल्के टैंक इस्तेमाल कर पा रही थी, जबकि पाकिस्तान भारी टैंकों को भी इस्तेमाल करने की स्थिति में था।


“इससे पहले कि वे कश्मीर पहुँचे में लाहौर पहुँच जाना चाहता हूँ” शास्त्री ने जनरल जे. एन. चौधरी से कहा था। पाकिस्तान पर हमले की योजनाएँ पहले से ही तैयार थीं, क्योंकि कच्छ के रण पर झड़पों के दौरान दोनों देश युद्ध के कगार पर पहुँच चुके थे। जैसाकि लेफ्टिनेन्ट जनरल हरबख्श सिंह ने मुझे बाद में बताया था, जनरल चौधरी ने उनसे कहा था कि कश्मीर पर दबाव को कम करने के लिए भारत को 48 घंटों के भीतर अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के पार पाकिस्तान पर हमले के लिए तैयार रहना चाहिए और यही हुआ भी।


हरबख्श सिंह के मन में यह बात बिलकुल साफ थी कि जैसे ही पाकिस्तान कश्मीर की तरफ कूच करेगा, भारत को पाकिस्तान में घुस जाना चाहिए। इसलिए छम्ब पर हमला होते ही, जहाँ पाकिस्तानी सेनाएँ युद्ध-विराम रेखा से एक चौथाई मील तक अन्दर घुस आई थीं, उन्होंने नेहरू की यह चेतावनी दोहराई कि कश्मीर पर हमला भारत पर हमला था। हरबख्श सिंह की यह चेतावनी काफी दमदार थी, खासकर तब जब छम्ब सेक्टर में पाकिस्तानी सेनाओं की बढ़त को देखते हुए कश्मीर पर खतरे के बादल मँडरा रहे थे।


पाकिस्तान पर हमले का कोड नाम ‘ऑपरेशन रिडल’ रखा गया था। इस ऑपरेशन के तहत अमृतसर, फिरोजपुर और गुरदासपुर से तीन तरफा हमला किया गया, और दो दिन बाद 1 सितम्बर को स्यालकोट का मोर्चा भी खोल दिया गया। स्यालकोट ही यह ‘बेस’ था जहाँ 8 से पाकिस्तान ने छम्ब सेटर पर हमले की योजना बनाई थी। लेकिन उनके पास कोई सशस्त्र डिवीजन नहीं थी। पाकिस्तान के सेना कमांडर टिक्का खान ने बाद में मुझे बताया था कि वे फोन पर झूठी बातचीत से भारतीयों को चकमा देने में सफल रहे थे। इस बातचीत से भारत ने यह नतीजा निकाल लिया था कि स्यालकोट में हथियारबन्द डिवीजन तैनात थी। “लेकिन यह सच नहीं था,” टिक्का खान ने कहा था, “भारतीय सेना बड़े आराम से वहाँ घुस सकती थी।”


हरबख्श सिंह ने मुझे बताया था कि जनरल जे. एन. चौधरी चाहते थे कि बेहतर सुरक्षा की दृष्टि से सेनाओं को विवास नदी के पीछे हटा लिया जाए, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। जब मैंने जनरल चौधरी से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे आदेश के उल्लंघन को बर्दाश्त करनेवाले जनरल नहीं थे। उनके कहने का शायद यह मतलब था कि वे ‘चाहते थे कि हरबख्श सिंह पीछे हट जाएँ, लेकिन उन्होंने ऐसा ‘आदेश’ नहीं दिया था।


कुल मिलाकर यह एक बोर्डर-युद्ध था। दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के इलाके में 15 मील से आगे नहीं जा पाई थीं। भारत पाकिस्तान के 470 वर्ग मील और पाक अधिकृत कश्मीर के 270 वर्ग मील इलाके पर कब्जा करने में सफल रहा था, जबकि पाकिस्तान के हाथ में भारत का 210 वर्ग मील इलाका ही आया था। भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को छेड़ने की कोशिश नहीं की थी, क्योंकि पश्चिमी सीमा पर ही उसे अपना लक्ष्य पहुँच से दूर प्रतीत हो रहा था।


मैं यह बात स्वीकार करना चाहूँगा कि मेरी ज्यादातर जानकारी हरवा सिंह की उस रिपोर्ट पर आधारित थी जो उन्होंने ‘स्टेट्समेन’ में छपने के लिए भेजी थी। मैं तब इस अखबार का स्थानीय सम्पादक था। जब मैंने इसमें से कुछ जानकारी को भारत-पाक सम्बन्धों पर अपनी किताब ‘द डिस्टेंट नेवर्स’ में इस्तेमाल किया तो उन्होंने मुझ पर मुकदमा चलाने के लिए जाने-माने वकील नानी पालखीवाला से सम्पर्क किया। पालखीवाला ने उनसे कहा कि वे यह मुकदमा नहीं लड़ सकते क्योंकि दोनों ही उनके ‘दोस्त’ थे। उन्होंने हरबख्श सिंह को मेरे साथ सुलह करने की सलाह दी। इसके बाद हरबख्श सिंह ने पाँच वर्ष तक मुझसे बात नहीं कीं।


भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई बन्द हुई तो दोनों का ही ज्यादातर गोला-बारूद खत्म हो चुका था। पाकिस्तान के लिए यह लड़ाई काफिर हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद से। कम नहीं थी। पाकिस्तान के एक नौजवान सेना अधिकारी का रवैया इसी सोच का उदाहरण था। वह फिरोजपुर सेक्टर में जख्मी हालत में पकड़ा गया था। जब इलाज के लिए उसे खून देने की जरूरत पड़ी तो उसने इनकार करते हुए कहा कि वह किसी काफिर का खून लेने की बजाय मरना पसन्द करेगा। वह सचमुच ही मर गया। लेकिन ऐसे भी उदाहरण देखने को मिले जब दोनों तरफ के जवानों ने एक-दूसरे की देखभाल की, क्योंकि बँटवारे से पहले उनका बचपन एक ही गाँव में गुजरा था।


एक बार रक्षा मंत्रालय के एक सेमिनार में मैंने जनरल चौधरी से पूछा था कि पाकिस्तान में भारतीय सेना की बढ़त की रफ्तार इतनी धीमी क्यों थी उनका जवाब था कि भारत पाकिस्तान के हथियारों के भंडार को नष्ट करना चाहता था, न कि उसके किसी इलाके पर कब्जा करना। बाद में एयर मार्शल अर्जन सिंह ने भी यही बात दोहराते हुए कहा था कि यह लड़ाई एक तरह से हथियारों की लड़ाई थी। महत्त्व इस बात का था कि हम पाकिस्तान के कितने हथियार नष्ट कर पाते हैं। हरबख्श सिंह ने भी मुझसे कहा था कि हमले से पहले ही यह तय कर लिया गया था कि लाहौर पर कब्जा नहीं करना है। हमारा ऐसा कोई सैनिक लक्ष्य नहीं था।

चौधरी ने भी इस बात की पुष्टि की कि भारतीय सेना लाहौर पर कब्जा करना नहीं चाहती थी। वे यह बात बखूबी जानते थे कि लाहौर की सुरक्षा काफी मजबूत थी और शहर पर कब्जा करने की स्थिति में भारत की अच्छी-खासी सेना को वहाँ रखना पड़ता। इसका कुछ भी फायदा नहीं था। बाद में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि लाहौर पर कब्जे का मतलब होता शहर की दस लाख की आबादी के भरण-पोषण की जिम्मेदारी लेना।

लाहौर में न घुसने का एक कारण वहाँ की जनता से टकराव का डर भी हो सकता था। पाकिस्तान सरकार ने लोगों को गली-गली लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार कर दिया था। लोगों से कहा गया था, “दरवाजे, खिड़कियाँ, लाठियाँ, छुरे चाकू जो भी हाथ में आए उससे लड़ो!” भारत द्वारा लाहौर पर कब्जा न कर पाने के कारण विदेशों में इस लड़ाई को ‘ड्रा’ घोषित कर दिया गया था।


उन दिनों शास्त्री ने दिल्ली के ट्रैफिक नियंत्रण के लिए आरएसएस के स्वयंसेवकों की मदद ली थी। संगठन ने उनके सामने यह प्रस्ताव रखा था और उन्हें इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति दिखाई नहीं दी थी। लेकिन इससे मुसलमानों को गलत सन्देश पहुँचा, जो पहले से ही काफी असुरक्षित महसूस कर रहे थे। कच्छ के रण में भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव पैदा होते ही मुसलमानों को सन्देह की नजर से देखा जाने लगा था। लड़ाई के बाद इसमें और बढ़ोत्तरी हो गई थी।

मैं अकसर पाकिस्तान जाता रहता था, क्योंकि वहाँ स्कूल और कॉलेज के दिनों के मेरे कई दोस्त थे। वहाँ के लोग मुझसे बड़े प्यार से मिलते थे और बड़े खुले दिल से मेरी खातिरदारी करते थे। मेरा असली मकसद पाकिस्तानियों को इस बात का अहसास करवाना था कि बँटवारे के दंगे एक भटकाव मात्र थे, और दोनों देशों को उन्हें भुलाकर दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू करना चाहिए। पंजाबी होने के कारण मुझे वहाँ घर जैसा लगता था। वे सब मेरी ही मातृभाषा बोलते थे, वैसा ही खाते थे और करीब-करीब वैसा ही पहनते थे। यूँ कभी-कभी किसी ऐसे आदमी से भी मेरा सामना हो जाता था जो इन समानताओं को नकारते हुए राष्ट्रों के सिद्धान्त की बात करने लगता था। मेरे लिए मुश्किल तब खड़ी हो जाती थी जब दो वहाँ के दुकानदार मेरे द्वारा खरीदी गई चीजों की कीमत लेने से मना कर देते थे। मुझे लगता था कि यह कुछ ज्यादा हो गया। पर यह सिर्फ मेरा अनुभव नहीं था। वहाँ जानेवाले सभी भारतीय वहाँ के लोगों का प्यार और दरियादिली देखकर दंग रह जाते हैं।

23 सितम्बर, 1965 को भारत और पाकिस्तान ने युद्ध-विराम की घोषणा कर दी। इसके चार दिन बाद शास्त्री ने फिरोजपुर सेक्टर के नाराज जवानों को मनाते हुए कहा कि विदेशी दबाव को देखते हुए उन्हें युद्ध-विराम के लिए राजी होना पड़ा था, खासकर अमरीका के दबाव के कारण, जिस पर भारत खाथ सामग्री और आर्थिक मदद के लिए निर्भर था। उन्होंने सोवियत संघ का नाम नहीं लिया, हालांकि यह भी लड़ाई बन्द करने के लिए जोर डालता रहा था।


इन्हीं दिनों अमरीका ने अपनी कश्मीर नीति में बदलाव करना शुरू किया। वह सोचने लगा कि क्या कश्मीर में जनमत-संग्रह करवाना सचमुच ही सही समाधान होगा। इसके बाद वह किसी तीसरी पार्टी की दखलंदाजी की बजाय भारत और पाकिस्तान द्वारा आपसी बातचीत से समस्या का हल निकाले जाने की बात करने लगा। 45 वर्ष बाद, नवम्बर 1910 में राष्ट्रपति ओबामा ने भी लगभग यही बात कही।

पाकिस्तान के साथ भारत की लड़ाई ने एक बात साफ कर दी। भारत कश्मीर को विवादित क्षेत्र न मानकर भारत का अभिन्न अंग मानता था। नेहरू का 1952 का नववर्ष का यह सन्देश साकार हो गया था कि “अगर पाकिस्तान ने कश्मीर में घुसने की गलती की तो भारत उससे सिर्फ कश्मीर में न भिड़कर इसे भारत और पाकिस्तान के बीच एक पूरे पैमाने का युद्ध मानेगा ।” इसके बाद जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं ने भी अपना नजरिया बदल लिया। वे कश्मीर के बारे में कहा करते थे कि कश्मीर का भविष्य नई दिल्ली, श्रीनगर और इस्लामाबाद के बीच बातचीत से तय किया जाना चाहिए। अब उन्होंने एक बयान जारी करके कहा किपाकिस्तान कश्मीर में अपना ‘लोक्स स्टेंडी’ (अधिकारिता) खो चुका था, और अब यह विवाद सिर्फ नई दिल्ली और कश्मीर के लोगों के बीच था।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here