-सरकार ने पत्रकारों से कहा समिति की बातचीत विशेषाधिकारों के दायरे में आती है

-समिति की बैठक खत्म होने के बाद सरकार के प्रतिनिधियों ने पत्रकारों को बताया सच

भारत के पहले गवर्नर-जनरल सी. राज. गोपालाचारी दक्षिण भारतीय थे। कभी हिन्दी का समर्थन करने के बावजूद उन्होंने अब इसके खिलाफ जोरदार अभियान छेड़ दिया। पन्त ने मुझे हिंदी की एक प्राथमिक पुस्तक में राजाजी द्वार लिखी गई प्रस्तावना दिखाई, जिसमें उन्होंने दक्षिण राज्यों से हिन्दी सीखने का आग्रह किया था। यह प्रस्तावना वर्षों पहले उस समय लिखी गई थी जब गांधीजी ने दक्षिण भारत में हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का आन्दोलन शुरू किया था।

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‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने इस प्रस्तावना को फिर से छापा। दिलचस्प बात यह थी कि इस अखवार के सम्पादक राजाजी के दामाद और गांधीजी के बेटे देवदास गांधी थे। राजाजी ने इस पुनर्प्रकाशन पर आपत्ति उठाई, जिसके पीछे निस्सन्देह हमारा हाथ था, और सरकार पर अनुचित तरीके इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। लेकिन इस प्रस्तावना का समिति के सदस्यों पर कोई असर नहीं हुआ। पन्त की सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि अखबारों में समिति के आपसी टकराव की खबरें मोटी-मोटी सुर्खियों में छप रही थीं। मैंने पन्त के कहने पर सम्पादकों से सम्पर्क किया और उन्हें समिति की बैठकों में होनेवाली चर्चा का प्रकाशन न करने के लिए कहा। लेकिन किसी ने भी मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया। अखबार भाषा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर चुप्पी साधने के लिए तैयार नहीं थे। पन्त के बार-बार अनुरोध करने के बावजूद समिति के सदस्य भी अखबारों को बयान न देने के लिए राजी नहीं हुए।

कुलदीप नैयर तब जनसंपर्क अधिकारी थेे। अपनी किताब एक जिंदगी काफी नहीं में लिखते हैं कि आखिर मुझे एक उपाय सूझा और यह कारगर भी साबित हुआ। मैंने अखबारों के संवाददाताओं से कहा कि समिति की बातचीत विशेषाधिकारों के दायरे में आती थी। किसी ने भी मेरे कथन की सत्यता की जाँच करने की कोशिश नहीं की। यह समिति संसद सदस्यों की समिति थी और एक रिपोर्ट पर चर्चा कर रही थी। यह सदन द्वारा गठित समिति नहीं। थी जिसे इस तरह के विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। लेकिन पत्रकारों की लापरवाही के कारण मेरे झूठ की पोल नहीं खुल पाई। उन्होंने समिति की बैठकों के बारे में लिखना बन्द कर दिया, हालाँकि कुछ सदस्यों ने उनसे कहा भी कि मैं विशेषाधिकारों के हनन की बात करके उन्हें बेवकूफ बना रहा था। मेरी तरकीब काम कर गई और रिपोर्ट के जारी होने तक कुछ भी नहीं छापा ।

संवाददाताओं को रिपोर्ट की प्रतियाँ बाँटते हुए मैंने उनसे क्षमा-याचना की और उन्हें संसदीय समिति और सदन द्वारा गठित समिति के फर्क के बारे में बताया। संवाददाताओं ने मुझे खूब कोसा, लेकिन तब तक मामला ठंडा पड़ चुका था। क्या मेरी हरकत गलत और अनैतिक थी? शायद ऐसा ही था, लेकिन मैंने देश को एक टकराव भरी बहस में उलझने से बचा लिया था, जिससे भाषा का सुलझा हुआ प्रश्न फिर से उलझ सकता था।

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