जब पूरी दुनिया Amitabh Bachchan की प्रतिभा को पहचान नहीं पाई, तब उनके छोटे भाई ने उन्हें सिनेमा की दुनिया में धकेल दिया
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Amitabh Bachchan: जब अमिताभ बच्चन को सिनेमा की दुनिया ने शुरुआती दिनों में नकार दिया, तब एक शख्स ऐसा था जिसे उनके अभिनय पर अटूट विश्वास था—उनके छोटे भाई अजिताभ बच्चन उर्फ बंटी।
स्कूल के मंच से लेकर फिल्मों की दुनिया तक, बंटी ने न सिर्फ अमिताभ के अंदर छिपे कलाकार को पहचाना, बल्कि उन्हें इस राह पर चलने के लिए प्रेरित भी किया। यह कहानी उस अनकहे संघर्ष की है जिसमें एक भाई ने अपने आदर्श को ऊँचाइयों तक पहुँचाने के लिए खुद को पीछे कर दिया—और भारतीय सिनेमा को मिला उसका महानायक।
उन दिनों अगर किसी व्यक्ति को अमिताभ की अभिनय क्षमता पर उनसे भी ज्यादा विश्वास था तो वे थे उनके छोटे भाई अजिताभ उर्फ बंटी।
बंटी उम्र में अमिताभ से लगभग पाँच वर्ष छोटे थे। इसलिए वे अपने बड़े भाई को अपने गुरु, संरक्षक और आदर्श के रूप में देखते थे।
नैनीताल के शेरवुड बोर्डिंग स्कूल में वे दोनों साथ-साथ थे। अपने बड़े भैया को स्कूल के मंच पर उत्कृष्ट अभिनय करते देखकर वे चमत्कृत रह गए थे। अमिताभको सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए ‘कैंडल कप’ मिला तो उनका अपना सीना भी गर्व से फूल गया था। वे हर किसी से कहते थे, “मेरे भैया जैसा अभिनय कोई भी नहीं कर सकता। देखना, अगले वर्ष भी भैया को ही कैंडल कप मिलेगा-लगातार दूसरी बार!”

यह कैंडल कप प्रसिद्ध अभिनेता शशि कपूर के ससुर जेफ्री कँडल ने स्कूल को समर्पित किया था, और हर वर्ष सबसे बढ़िया अभिनय करने वाले छात्र को दिया जाता था।
अगले वर्ष अस्वस्थ होने के कारण अमिताभ यह कप नहीं जीत पाए थे-वे नाटक में भाग ही नहीं ले पाए थे लेकिन उनकी अभिनय क्षमता में बंटी की आस्था जरा भी कम नहीं हुई थी।
स्कूल की पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद अमिताभ दिल्ली लौट आए थे, जबकि बंटी को अकेले ही नैनीताल में रुककर अपनी पढ़ाई पूरी करनी पड़ी थी। वे दिल्ली लौटे तो अमिताभ कलकत्ता जा पहुँचे। इसलिए अगले कुछ वर्षों तक दोनो भाइयों को एक-दूसरे का बहुत कम साथ मिल पाया। लेकिन आखिर बंटी ने उन्हें कलकत्ता में जा पकड़ा। नौकरी की तलाश में वे खुद भी अपने बड़े भाई की तरह कलकत्ता जा पहुँचे थे और शॉ वैलेस कंपनी से जुड़ गए थे।
उन्हें एक बार फिर अपने बड़े भाई को करीब से देखने का अवसर मिला। उन्होंने महसूस किया कि बियर-व्हिस्की और गीत-संगीत और नृत्य की धमा-चौकड़ियों में अमिताभ अपना समय और ऊर्जा नष्ट कर रहे थे। इस तरह की गतिविधियाँ उनकी प्रतिभा के साथ न्याय करने के लिए नाकाफी थीं। वे शांत और संयत दिखाई देने वाले अपने बड़े भाई के दिल में मचलते तूफान से भली-भांति परिचित थे।
वे अमिताभ के पीछे पड़ गए और उन्हें अकसर उकसाते हुए कहने लगे- “यह तुम क्या कर रहे हो, भैया? तुम्हारा जन्म सिनेमा के भव्य पर्दे पर अभिनय का कमाल दिखाने के लिए हुआ है-न कि यार दोस्तों के बीच इन धमा-चौकड़ियों के लिए! तुम्हें बंबई जाना चाहिए!”

धीरे-धीरे अमिताभ को भी अहसास होने लगा कि कलकत्ता उनके लिए सही जगह नहीं थी। न यह नौकरी ही उनकी आखिरी मंजिल थी। उनके पास सब कुछ था-गाड़ी, ड्राइवर, अच्छी तनख्वाह, प्रतिष्ठा। लेकिन जैसे कुछ भी नहीं था। या कोई ऐसी चीज नहीं थी जो सबसे ज्यादा जरूरी थी, सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण थी। एक खास तरह का आत्म-संतोष। एक खास तरह की तृप्ति। शायद वह काम उनके मन का नहीं था। शायद वह दुनिया भी उनके मन की नहीं थी।
वे कोई फिल्म देखने जाते तो अकसर किसी अभिनेता या दृश्य को देखते हुए सोचते और कई बार कह भी बैठते कि अगर इस दृश्य को इस तरह किया जाता तो कैसा रहता?
वे दिलीप कुमार और बलराज साहनी के अभिनय के बहुत गहरे प्रशंसक थे, हालाँकि शम्मी कपूर की अभिनय-शैली और उनका उन्मुक्त नृत्य भी उन्हें खूब भाता था।
आखिर एक दिन कलकत्ता के विक्टोरिया मैमोरियल के सामने बंटी ने उनके चित्र उतारे थे और दो फिल्मी-पत्रिकाओं ‘फिल्मफेयर’- ‘माधुरी’ द्वारा आयोजित एक संयुक्त प्रतियोगिता के लिए भेज दिए थे। नए अभिनेता-अभिनेत्रियों की तलाश के लिए उन दिनों इस तरह की प्रतियोगिताएँ अकसर आयोजित होती रहती थीं। इन प्रतियोगिताओं के साथ बहुत-से फिल्म-निर्माता भी जुड़े होते थे। 1969-1972 के सुपर स्टार राजेश खन्ना भी ऐसी ही एक प्रतियोगिता की खोज थे, जिसे ‘युनाइटिड प्रोड्यूसर्स’ नामक निर्माताओं के एक संघ का समर्थन प्राप्त था। बाद में इन निर्माताओं ने राजेश खन्ना को अपनी फिल्मों में अवसर भी दिए थे।
लेकिन यह प्रतियोगिता भी अमिताभ की साधारण शक्ल-सूरत के पीछे छिपी असाधारण प्रतिभा को पहचान नहीं पाई थी। उन्हें बुलाया ही नहीं गया था।
अमिताभ ने नवंबर 1968 में नौकरी छोड़ने का फैसला किया था। उन्हीं दिनों बंटी की कंपनी ‘शॉ वैलेस’ ने भी उन्हें छह महीने के लिए बंबई भेजने का फैसला कर लिया।
अब बंबई में कुछ ‘कर गुजरने’ के लिए दोनों भाइयों के पास छह महीने का समय था। अमिताभ माता-पिता का आशीर्वाद लेने दिल्ली पहुँचे तो बंटी मानो उनके दूत के रूप में उनसे पहले ही बंबई जा पहुँचे।
उनकी मुलाकात नीना नाम की एक संघर्षरत अभिनेत्री से हुई, जो ख्वाजा अहमद अब्बास की नई फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ में नायिका की भूमिका निभाने जा रही थीं। बंटी ने अपने द्वारा खींचे हुए अमिताभ के कुछ चित्र बहुत-से दूसरे लोगों की तरह उन्हें भी थमा दिए और उनसे इन्हें अब्बास साहब को दिखाने का अनुरोध किया।
नीना स्वयं तो उस फिल्म की नायिका नहीं रह पाईं। उनकी जगह जलाल आगा की छोटी बहन शहनाज को ले लिया गया। लेकिन वे अमिताभ के चित्रों को अब्बास साहब की पारखी नजर से गुजारने में सफल हो गईं।
कुछ दिन बाद अब्बास साहब की पिछली फिल्म के हीरो जलाल आगा और प्रसिद्ध कॉमेडियन महमूद के छोटे भाई अनवर अली अपने ‘मामूजान‘ अर्थात् अब्बास साहब के दफ्तर में पहुँचे, तो उन्होंने दीवार पर एक बहुत लंबे और दुबले-पतले से युवक का चित्र लगा देखा।
“यह नमूना कौन है?” उन दोनों ने बेतहाशा हँसते हुए पूछा। वे दोनों ही अब्बास साहब के मुँहलगे थे।
“यह मेरी नई फिल्म का हीरो है।” अब्बास साहब ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।
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