1857 की क्रांति: जॉन निकल्सन को अंग्रेजी फौज का ब्रिगेडियर जनरल बनाया गया। इस फैसले से सिपाहियों में जहां जश्न का माहौल था तो वहीं कई ऐसे अधिकारी भी थे जो खफा थे। निकल्सन और जनरल विल्सन जो एक साफ दिल और दाढ़ी वाला आदमी था, बिल्कुल एक-दूसरे के उलट थे। और दोनों में झगड़ा न होना नामुमकिन था।
खासतौर से जब निकल्सन को स्वाभाविक रूप से ही किसी का आदेश मानने की आदत नहीं थी। विल्सन को निकल्सन का कृपापूर्ण अंदाज बेहद नापसंद था। आखिर वह निकल्सन का कमांडिंग अफसर था। उधर निकल्सन विल्सन की बेहद सावधानीपूर्ण आदतों और हमेशा घबराए रहने से तंग आ गया था।
उसने जॉन लॉरेंस को लिख भेजा कि “विल्सन का कहना है कि वह लड़ाई तब शुरू करेंगे, जब भारी तोपें आ जाएंगी। लेकिन वह यह इतने अनिश्चित अंदाज़ में कहते हैं कि मुझे शक होता है कि वह ऐसा करेंगे। वह बिल्कुल इस संकटपूर्ण समय के लायक नहीं हैं और मुझे महसूस होता है कि वह भी यह बात जानते हैं।”
और बाद के खतों से जाहिर होता है कि उनके आपस के झगड़े बढ़ते जा रहे थे। अगस्त के मध्य में निकल्सन ने लॉरेंस को लिखा, “विल्सन का दिमाग चल गया है। वह खुद यह कहते हैं और यह साफ जाहिर है कि वह सच कहते हैं।” तीन हफ्ते के बाद निकल्सन ने लॉरेंस को इससे भी ज़्यादा धृष्टतापूर्ण एक और खत लिखा, “मैंने अपने कैरियर में बहुत से बेकार जनरल देखे हैं, लेकिन इतना जाहिल, मुश्किलें पैदा करने वाला और टर-टर करने वाला नहीं, जैसे यह हैं, और इस जगह की फतह के बाद मुझे कोई ताकत मजबूर नहीं कर सकती कि मैं एक दिन भी उनके नीचे काम करूं।”
लेकिन निकल्सन की शिकायतों के बावजूद विल्सन की प्लानिंग और तर्क कि पहले रिज की पूरी सुरक्षा की व्यवस्था हो और फिर घेराबंदी की गाड़ियों का इंतज़ार किया जाए, सही साबित हो रही थी, क्योंकि अभी क्रांतिकारियों के हमले खत्म नहीं हुए थे। हमले हालांकि कुछ कम हो गए थे, लेकिन फिर भी हर बार जब नए क्रांतिकारियों की कोई टोली कश्तियों का पुल पार करके दिल्ली आती, तो पहले उसे खुद को साबित करने के लिए रिज पर हमला करने का आदेश दिया जाता था और फिर फौज में भर्ती होने की मंजूरी मिलती।
लेकिन अपने आपको ज्यादा नुकसान पहुंचाए बिना ब्रिटिश फौज की ऐसी हमलों से मुकाबला करने की कामयाबी का सेहरा विल्सन की सावधान और दूरदर्शी प्लानिंग के सर था।