अंग्रेजों के लिए जासूसी करने वालों का घर भी एजेंटो ने लूटा
1857 की क्रांति: बगावत के दौरान शहर के कई प्रतिष्ठित लोगों ने अंग्रेजों के लिए जासूसी की। बहुत से जासूसों और मददगारों के पास लिखा हुआ सबूत था कि उन्होंने अंग्रेजों की मदद की, लेकिन, कंपनी के इटैलिजेंस डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, जनरल विल्सन का आदेश था कि ‘किसी भी सुरक्षा पत्र को स्वीकार’ न किया जाए, जब तक उस पर उनके भी दस्तखत न हों। इसका नतीजा यह हुआ कि बहुत कम लोगों को अपनी जायदाद की सुरक्षा की इजाजत मिली।
‘दो-तीन दिन के अंदर-अंदर, कोई घर ऐसा नहीं बचा था, जिसमें लूटपाट नहीं की गई थी। हुकूमत के दोस्त और दुश्मन सबको बराबर से यह मुसीबत भुगतनी पड़ रही थी।
मुंशी जीवनलाल गदर के दौरान एक अहम जासूस रहा था और बड़ी मुश्किल से क्रांतिकारियों के बार-बार के हमलों से और उनके हाथों कैद होकर मार डाले जाने से बचा था। लेकिन 21 सितंबर को उसके घर को भी सिपाहियों ने अच्छी तरह लूटा।
ऐसा ही मिर्जा इलाही बख्श के साथ हुआ जो अंग्रेजों का खास मददगार था, और जिसने न सिर्फ अपने रिश्ते के भाई जफर के साथ बल्कि अपने नवासे मिर्जा अबूबक्र तक के साथ दगा की। लेकिन फिर भी उसके घर को लूटा गया और उसका सारा माल वसूली एजेंट ले गए।
अंग्रेज-समर्थकों द्वारा धोखा खाने के बारे में सबसे मर्मभेदी चिट्ठी दिल्ली कॉलेज में गणित के भूतपूर्व लेक्चरार और ईसाई धर्म अपना चुके मास्टर रामचंद्र की थी। वह दिल्ली से 11 मई को फरार हो गए थे। उसी दिन जब उनके दोस्त और धर्मपरिवर्तन में उनके साथी डॉ. चमन लाल बगावत के पहले ही दिन मारे गए थे। जब दिल्ली की पराजय के बाद वह वापस आए, तो उन्हें उम्मीद थी कि उनके ईसाई साथी उनका स्वागत करेंगे, लेकिन इसके उलट, उन्हें फिर अपनी जान का उसी तरह खतरा हो गया जैसा गदर के जमाने में था-लेकिन जहां उस समय वह अपने धर्म की वजह से निशाना बने थे, वहीं अब वह सिर्फ अपनी त्वचा के रंग की वजह से शिकार बन रहे थे। आखिरकार उन्होंने सोचा कि वह अपनी दास्तान लिखकर कर्नल बर्न को भेजें, जो हाल ही में दिल्ली का फौजी गवर्नर नियुक्त हुआ था। उस खत में उन्होंने लिखा कि किस तरह उन्होंने खुशी-खुशी वसूली एजेंट के साथ काम किया था और क्रांतिकारियों के मुकद्दमे के सिलसिले में कागजों के अनुवादक भी रहे थे, लेकिन फिर भी उन्हें लगता था कि उनकी जिंदगी हर वक्त खतरे में है।
“एक महीना पहले मैं चर्च के पास मि. मर्फी के घर कुछ फारसी के कागज़ात का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए गया था। मैं सड़क से गुजर रहा था, तो मैंने कुछ अंग्रेज अफसरों को हामिद अली खान की मस्जिद पर चढ़कर गुलेल से मिट्टी के गोले राहगीरों पर मारते देखा। मैंने उनको समझाया कि मैं एक सरकारी कारिंदा हूं और ईसाई हूं लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि वह और गुस्से में आ गए और उन्होंने मुझे खूब बुरा-भला कहा और पहले से भी ज्यादा जोश से मुझ पर मिट्टी के गोले बरसाने शुरू कर दिए। बाद में फिर मुझे उसी मस्जिद में कुछ किताबों की तलाश में जाना पड़ा, जो वसूली एजेंट ने मांगी थीं तो फिर मुझ पर हमला हुआ। हालांकि मेरे साथ वसूली एजेंट के दो चपरासी भी थे और मैंने फिर उनसे कहा कि मेरे पास सरकारी पास भी है मगर किसी ने एक नहीं सुनी।
“मुझे बहुत अफसोस से कहना पड़ता है कि बाद में मुझे पता चला कि मुझे न सिर्फ सुनसान सड़कों पर खतरा है बल्कि अपने घर के अंदर भी खतरा है। 12 दिन हुए, जब रात को मैं और मेरे कुछ दोस्त आपस में बातचीत कर रहे थे… तो मुझको अपनी दीवारों और दरवाजों पर जोर-जोर से पत्थर फेंकने की आवाजें आई, जिसने हमें परेशान कर दिया और एक पत्थर तो बहुत ज़ोर से मेरे पलंग पर भी आकर गिरा…”
रामचंद्र ने लिखा कि जो अंग्रेज अफसर उनके घर के सामने पहरे पर तैनात किए गए थे वही इसके जिम्मेदार निकले, और वह आने वाले दिन-रात में भी उन पर और उनके घर पर हमले करते रहे। ‘एक दिन मैं किले से एडवर्ड कैंपबैल के घर से वापस आ रहा था, तो मेरे सिर पर एक जोरदार चोट पड़ी। एक अंग्रेज अफसर जो अपने एक साथी के साथ घोड़े पर जा रहा था, उसने मुझे अपने डंडे से मारा था और मारने के बाद वह मुड़ा और मुझसे सलाम करने को कहा।
मैंने एक के बजाय कई सलाम किए, और कहा कि मैं ईसाई हूं और वसूली एजेंट की नौकरी में हूं। यह सुनकर वह दीवाने-खास की तरफ बढ़ता गया और मुझे गालियां देकर कहा कि मैं कोयले की तरह काला हूं। मुझे बहुत चोट लगी थी और मैं काफी सदमे में था।
इसलिए मैं थोड़ी देर वहीं ठहर गया, जहां उसने मुझको मारा था। यह देखकर वह अफसर घोड़ा दौड़ाता वापस आया और मेरी पीठ और बाजू पर कई डंडे बरसाए।’ यह अफसर एडवर्ड ओमैनी हो सकता है, क्योंकि लगभग ठीक उसी समय के बारे में उसने लिखा है कि उसने ‘हर उस हिंदुस्तानी की धुनाई की जिसने सलाम नहीं किया’ ।
रामचंद्र ने फिर बयान किया कि गदर के जमाने में उसने सिर्फ अपने धर्मांतरण की वजह से कितनी तकलीफें उठायी थीं, ‘लेकिन अपनी उस सबसे बड़ी मुसीबत के समय मुझे यह सोचकर सुकून हो जाता था कि मेरे साथ जो हो रहा है वह उसके मुकाबले में कुछ भी नहीं है जो अंग्रेज अफसरों, फौजियों और मिशनरियों पर बीती थी।
मैंने यह भी सोचा कि अगर बागी मुझे ढूंढ़कर मार डालेंगे, तो ऐसा इसलिए होगा कि मैंने अपने पूर्वजों का मजहब छोड़कर ईसाइयत को स्वीकार कर लिया था, और मेरी मौत अपने निजात दिलाने वाले मसीहा की गवाही होगी, जैसा पहले जमाने के शहीदों, जीजस क्राइस्ट के शिष्यों और शुरुआती ईसाइयों के साथ हुआ था। यह बात मेरे लिए अपने सब खतरों और मुसीबतों में बड़ी तसल्ली का जरिया थी।
लेकिन अब कोई तसल्ली बाकी नहीं रही है, जब एक देसी ईसाई खुद अपने ईसाई अफसरों से खतरे में है, सिर्फ इसलिए कि वह इंग्लैंड में पैदा नहीं हुआ था और उसकी त्वचा गोरी नहीं है। यह तो झूठे मजहब के प्रचारक दिल्ली के बागी भी नहीं करते थे। मुसलमान हो या हिंदू, वह दोनों से भाइयों जैसा सुलूक करते, उन्हें सिर्फ ईसाइयों से और उनके करीबी दोस्तों से नफरत थी।
मेरी यह अपील,’ निराश रामचंद्र ने लिखा, ‘न सिर्फ देसी ईसाइयों के लिए है, जो दिल्ली में बहुत कम बचे हैं, बल्कि उन हिंदुओं और मुसलमानों के लिए भी है जिनको शहर में रहने दिया गया है कि उन सबको अंग्रेज सिपाहियों से खतरा है। खासतौर से अंग्रेज अफसरों से।