ये किसी ने सोचा भी नहीं था कि आजादी की कीमत लाशों से अटी ट्रेन देखकर चुकानी होगी। बंटवारे का दर्द हर किसी के चेहरे पर साफ दिख रहा था। लेकिन अपने वतन में सांस लेने की आजादी भर से मन उत्साह से भर जाता। आने वाले स्वर्णिम कल की कल्पना मात्र से ही मन प्रसन्न हो जाता। शायद यही कारण था कि 14 अगस्त की रात मूसलाधार बारिश के बावजूद संसद भवन के बाहर सैकड़ो नहीं हजारों की तादात में लोग आजादी की घोषणा के ऐतिहासिक पल का गवाह बनने के लिए खड़े थे। कनॉट प्लेस को तिरंगे से सजाया गया था। आगामी एक हफ्ते तक दिल्ली जश्न में डूबी रही। कहीं गीत संगीत पर लोग नृत्य कर रहे थे तो कहीं युवाओं, महिलाओं का दल देशभक्ति गाने गा रहा था। कहीं दुकानों पर मुफ्त सामान मिल रहे थे तो कहीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन। प्रभात फेरी के जरिए छोटे बच्चे अपनी खुशी का इजहार कर रहे थे। भारत के कोने कोने से लोग इस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनने आए थे।

ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 14 अगस्त 1947 की आधी रात को जो भाषण दिया था उसे ट्रिस्ट विद डेस्टिनी के नाम से ही जाना जाता है। नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज में लिखते हैं कि जब नेहरू के पीए ने भाषण टाइप करके मथाई को दिया तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एक जगह ‘डेट विद डेस्टिनी’ मुहावरे का इस्तेमाल किया था। मथाई ने रॉजेट का इंटरनेशनल शब्दकोश देखने के बाद उनसे कहा कि ‘डेट’ शब्द इस मौके के लिए सही शब्द नहीं है क्योंकि अमरीका में इसका आशय महिलाओं या लड़कियों के साथ घूमने के लिए किया जाता है। उन्होंने डेट की जगह रान्डेवू या ट्रिस्ट शब्द का इस्तेमाल करें। नेहरू ने एक क्षण के लिए सोचा और अपने हाथ से टाइप किया हुआ डेट शब्द काट कर ट्रिस्ट लिखा। नेहरू के भाषण का वो आलेख अभी भी नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है। 14 अगस्त की रात 11 बजकर 55 मिनट पर संसद के सेंट्रल हाल में नेहरू ने यह भाषण पढ़ा। जैसे ही घड़ी में रात के बारह बजे शंख बजने लगे। हाल में मौजूद लोगों की आंखों से आसूं बह रहे थे। वहीं संसद भवन के बाहर मूसलाधार बारिश में हजारों की तादात में लोग खड़े थे। जैसे ही नेहरू संसद भवन से बाहर निकले मानो हर कोई उन्हें घेर लेना चाहता था।

सड़कों पर उमड़ा सैलाब

15 अगस्त के दिन सड़कों पर मानों लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। शाम पांच बजे इंडिया गेट के पास प्रिंसेज पार्क में माउंटबेटन को भारत का तिरंगा झंडा फहराना था। इतिहासकार कहते हैं माउंटबेटन के सलाहकारों का ऐसा अनुमान था कि इस सेलिब्रेशन में 30 हजार लोग शामिल होंगे। लेकिन उस दिन छह लाख लोग इकट्ठा हुए थे। ऐसा कहा जाता है कि भारत के इतिहास में तब एक साथ एक समय में इतने लोग कभी एकत्रित नहीं हुए थे। माउंटबेटन की बग्घी के चारों ओर लोगों का इतना हुजूम था कि वो उससे नीचे उतरने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। उनकी 17 वर्षीय बेटी पामेला भी दो लोगों के साथ उस समारोह को देखने पहुंचीं। अपनी किताब इंडिया रिमेंबर्ड में वो लिखती हैं कि नेहरू लोगों के सिरों पर पैर रखते हुए किसी तरह मंच पर पहुंचे। हालांकि बग्घी में बैठे माउंटबेटन नीचे नहीं उतर पा रहे थे। उन्होंने वहीं से चिल्लाकर नेहरू से कहा-लेट्स होएस्ट द फ्लैग’। जिसके बाद तिरंगा झंडा फहराया गया।

वहीं कृष्णा सोबती ने अपने प्रथम स्वतंत्रता समारोह संबंधी कलेक्शन में लिखा है कि दिल्ली में मानों दिवाली हो। हर घर को सजाया गया था। कनॉट प्लेस में लोगों का हुजूम सेलिब्रेशन के लिए उमड़ा था। हर आयु वर्ग के लोगों का मुंह गुलाब जामुन, लड्डू, मोतीचूर लड्डू, कलाकंद, बेसन की तुकरियान, पेठा, बालुशाही, हलवा पूरी खिलाकर मीठा करवाया जा रहा था। तांगों पर बैठकर लोग चांदनी चौक पहुंच रहे थे।

इस तरह शुरू हुई कैदियों की रिहाई की परंपरा

आजादी के दिन दिल्ली की विभिन्न जेलों से 28 साधुओं और 68 लोगों को रिहा किया गया था। इसकी पहल जुलाई महीने से शुरू हो गई थी। होम सेक्रेटरी ने डिप्टी कमिश्नर को पत्र लिखकर इन्हें रिहा करने को कहा थाा। उन्होंने लिखा था कि ऐसे व्यक्ति जिन्हें छह माह की जेल हुई हो या भारत छोड़ो आंदोलन में बंद व्यक्तियों को रिहा किया जाए। ये आदेश सांप्रदायिक एवं डकैती समेत कई अन्य संगीन केसों में बंद लोगों पर लागू नहीं होगा। जिसके बाद सरकारी अधिकारी का आदेश नहीं मानने के आरोप में दिल्ली की जेलों में बंद 28 साधुओं को रिहा किया गया। यही नहीं यह भी कहा गया कि इस तरह की परंपरा भविष्य में भी जारी रखी जाए।

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