पूणे फिल्म इंस्टीट्यूट में पहली बार पहली बार आमने-सामने आए अमिताभ और जया
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Amitabh Bachchan: ये कहानी तब की है जब अब्बास साहब ने सात हिंदुस्तानी फिल्म के लिए अमिताभ बच्चन को बतौर हीरो चुन लिया। अब्बास साहब एक बहुत बढ़िया गुरु, साथी और मित्र साबित हुए। वे शूटिंग के लिए ‘लोकेशन’ देखने जाते तो अकसर अमिताभ को भी अपने साथ ले जाते।
इसी तरह एक बार अमिताभ को उनके साथ पूना के फिल्म इंस्टीट्यूट में जाने का अवसर मिला। इस बीच कई अखबारों और फिल्म-पत्रिकाओं में यह खबर छप चुकी थी कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने डॉ. हरिवंशराय बच्चन के बेटे को ‘सात हिंदुस्तानी’ के लिए साइन कर लिया है। पूना इंस्टीट्यूट के सजग और उत्साही छात्रों को भी यह बात मालूम थी।
वे दिन पूना फिल्म इंस्टीट्यूट के सबसे गौरवशाली दिन थे। 1968 से लेकर 1972 तक के पाँच वर्ष। न इससे पहले और न इसके बाद ही पूना इंस्टीट्यूट को कभी इतनी ज्यादा ख्याति मिली। दरअसल वह दौर फिल्म उद्योग में एक बड़े परिवर्तन का दौर था-पुराने और जमे हुए सितारों के एकाएक लुप्त हो जाने और नए सितारों के उभरने का दौर।
इसी दौर में पूना फिल्म संस्थान से नए अभिनेता-अभिनेत्रियों का एक रेला आया था और देखते-ही-देखते बंबई के फिल्म उद्योग पर छा गया था। नवीन निश्चल, शत्रुघ्न सिन्हा, अनिल धवन, विजय अरोड़ा, डैनी, असरानी, जया भादुड़ी, राधा सलूजा, सुभाष घई जैसे कितने ही नाम इसी इंस्टीट्यूट की देन थे।
हर वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों से महत्त्वाकांक्षी युवक-युवतियाँ अभिनय का प्रशिक्षण लेने इस संस्थान में आते थे। दो वर्ष के प्रशिक्षण के दौरान उन्हें दुनिया भर की उत्कृष्ट फिल्में दिखाई जाती थीं, फिल्म निर्माण की तकनीक समझाई जाती थी, और अभिनय सिखाया और करवाया जाता था। अभिनय के साथ-साथ इस संस्थान में फिल्म-निर्देशन, संपादन वगैरह का भी प्रशिक्षण दिया जाता था। निर्देशन का प्रशिक्षण लेने वाले छात्र संस्थान के छात्रों को लेकर अपनी छोटी-छोटी फिल्में भी बनाते थे।

एक तरह से यह जागरूक, शिक्षित और सुप्रशिक्षित अभिनेता-अभिनेत्रियों और अन्य फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार करने का अभियान था और 1968 से लेकर 1972 तक के उन पाँच वर्षों में एक बेहद सफल प्रयोग रहा था।
हमेशा की तरह उस दिन भी संस्थान के कुछ छात्र संस्थान के अहाते में एक पेड़ के नीचे बैठे हुए थे और फिल्म निर्माण और अभिनय कला को लेकर काफी गंभीर चर्चा में व्यस्त थे। वे सब इस पेड़ को ‘ज्ञान-वृक्ष’ कहते थे, जिसके नीचे बैठकर निर्देशन और अभिनय की बारीकियों की चर्चा करना उन सबके लिए एक आनंददायक और रोमांचक अनुभव होता था।
तभी उनमें से किसी ने कहा, “वह देखो, ख्वाजा अहमद अब्बास चले आ रहे हैं!”
सभी चौंककर उस बरफ देखने लगे।
“उनके साथ वह लंबा-सा लड़का कौन है?” किसी ने पूछा।
“अमिताभ बच्चन-डॉ. हरिवंशराय बच्चन का बेटा,” किसी दूसरे ने अपना ज्ञान बघारते हुए बताया। “वह अब्बास साहब की नई फिल्म का हीरो है।”

“हे भगवान, कितना लंबा है!”
“बिल्कुल ताड़ के पेड़ की तरह!”
“यह कहीं से भी हीरो दिखाई नहीं देता!”
इन मिली-जुली आवाजों के बीच हँसी का एक फव्वारा छूट पड़ा। हर कोई अपने-अपने तरीके से उसके कद और शक्ल-सूरत को लेकर उपहासात्मक टिप्पणी कर रहा था। लेकिन उन सबके बीच एक छोटे कद की लड़की बिल्कुल खामोश बैठी हुई थी और उस लंबे युवक को एकटक देखे जा रही थी। उसने धीरे-से कहा, “मुझे तो यह अच्छा-खासा दिखाई दे रहा है। दूसरों से एकदम अलग। कितना प्रभावशाली है!”
उस लड़की का नाम जया भादुड़ी था और वह संस्थान में अभिनय की कक्षा में प्रथम वर्ष की छात्रा थी।
लेकिन अमिताभ उस लड़की या उसके साथियों की तरफ ध्यान दिए बिना अब्बास साहब के साथ चुपचाप चलते रहे थे-शरमाते और सकुचाते हुए।
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