जंगल, बिजली नहीं और फर्श पर नींद – ऐसे शूट हुई थी अमिताभ की पहली फिल्म!
सर्किट हाउस, मोलेम और अब्बास साहब की फौज – अमिताभ ने ऐसे सीखी एक्टिंग की असलियत!
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Amitabh Bachchan: ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपनी फिल्म सात हिंदुस्तानी के लिए अमिताभ बच्चन को सलेक्ट कर लिया था। अब्बास साहब अमिताभ को लेकर यहां वहां भी जाते थे। वो एक दिन पूणे स्थित फिल्म इंस्टीट्यूट भी पहुंच गए। जहां पहली बार अमिताभ का जया भादुड़ी से आमना सामना हुआ।
इसी तरह उन्हें अब्बास साहब के साथ गोवा जाने का अवसर मिला था। दरअसल अब वे स्थाई रूप से बंबई में आ डटे थे और बंटी के साथ कोलाबा में रह रहे थे। रहने और खाने-पीने की कोई चिंता नहीं थी। बंटी जो था। साथ ही अब्बास साहब के साथ पाँच हजार के कॉन्ट्रेक्ट में से भी थोड़े-थोड़े पैसे मिलते रहते थे।
वे लगभग रोज ही अब्बास साहब के जुहू के दफ्तर में जा पहुँचते, जहाँ जलाल आगा और अनवर अली के साथ उनकी काफी गाढ़ी छनने लगी थी। अब्बास साहब होते तो पटकथा और पात्रों को लेकर चर्चा चलती रहती, वरना बातें बेलगाम किसी भी तरफ मुड़ जातीं। आपस में हँसी-मजाक चलता रहता, और मौज-मस्ती भी होती रहती।
आखिर 1969 के मध्य में अब्बास साहब ने गोवा चलकर फिल्म की शूटिंग करने की घोषणा कर दी। उनके प्रोडक्शन यूनिट के साथ उनके सातों हिंदुस्तानी भी एक साथ रेलगाड़ी में सवार हुए। बंबई से बेलगाम और बेलगाम से गोवा।
फिल्म का विषय कुछ ऐसा था कि किसी एक जगह टिककर शूटिंग करना संभव नहीं था। यह उन सात हिंदुस्तानियों की कहानी थी जो पैदल चलते हुए गोवा की राजधानी ‘पंजिम’ तक पहुँचे थे रास्ते में तरह-तरह की कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करते हुए। इसलिए शूटिंग के लिए दूर-दूर तक फैले विभिन्न क्षेत्रों को चुना गया था कभी यहाँ तो कभी वहाँ। एक कारवाँ था जो फिल्म के विभिन्न दृश्यों के फिल्मांकन के साथ-साथ आगे बढ़ रहा था।

यूनिट के हर सदस्य के लिए यह एक दिलचस्प और रोमांचक अनुभव था। अमिताभ के लिए भी। ऐसे लगता था जैसे किसी पिकनिक या फिर किसी रोमांचक अभियान पर निकल आए हों।
सभी लोग अपना सामान खुद उठाकर चलते थे। और सब-के-सब रहते भी एक साथ थे। कभी जंगल के बीचोंबीच किसी सर्किट हाउस में तो कभी किसी गेस्टहाउस में। रात में सभी अपना-अपना बिस्तरबंद खोलकर फर्श पर ही लुढ़क जाते। किसी इलाके में बिजली नहीं होती थी तो कहीं किसी दूसरी असुविधा का सामना करना पड़ता था। लेकिन अब्बास साहब की टीम बिल्कुल फौजियों की तरह अपने काम को अंजाम दे रही थी एक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण फिल्म बनाने के अपने लक्ष्य को।
उत्पल दत्त साहब की पत्नी भी उनके साथ थीं, जो यूनिट के सदस्यों के खाने-पीने का खास ध्यान रखती थीं। उत्पल दत्त उन दिनों भी स्वभाव से उतने ही चंचल और विनोदप्रिय थे जितने वे बाद में ‘गोलमाल’ और ‘बहुरानी’ जैसी अपनी फिल्मों में दिखे।
दिन भर की शूटिंग के बाद सब लोग आपस में हँसी-मजाक करते और एक-दूसरे का भरपूर मनोरंजन करते। ऐसे माहौल में दिन भर की थकान पलक झपकते ही दूर हो जाती। अमिताभ कभी-कभी अपनी माँ या पिता को पत्र लिखने बैठ जाते या जलाल आगा या अनवर अली के साथ शतरंज खेलने लगते।

फिल्म का पूरा यूनिट ‘मोलेम’ नाम के एक कस्बे के डाक बंगले में ठहरा हुआ था कि जलाल आगा का जन्म दिन आ पहुँचा। उस दिन न सिर्फ अब्बास साहब ने पूरे यूनिट को मुर्गे की दावत दी, बल्कि अमिताभ ने अपने बचपन का प्रिय गीत ‘मेरे अंगने में’ भी गाकर सुनाया। वे पहली बार यूनिट के लोगों के बीच इतना खुले थे।
बंबई लौटने के बाद भी फिल्म की शूटिंग जारी रही। और जितनी तेजी से यह फिल्म बनी थी, उतनी ही तेजी से रिलीज भी हो गई। 1969 के आखिरी महीनों में।
अमिताभ अपने परिवार के साथ अपनी पहली फिल्म देखने दिल्ली पहुँचे पहाड़गंज के ‘शीला’ सिनेमा में।
अपने-आपको सिनेमा के भव्य पर्दे पर देखने का एक अलग ही नशा था। उन्होंने काम भी अच्छा किया था। एक मुश्किल भूमिका को उन्होंने बखूबी अंजाम दिया था।
लेकिन दर्शकों पर अमिताभ का नशा चढ़ने में अभी कुछ समय था। यूँ भी अब्बास साहब की फिल्में व्यावसायिक फिल्मों के आदी दर्शकों के लिए नहीं होती थीं। वे सिर्फ प्रबुद्ध दर्शकों के लिए होती थीं। इन फिल्मों से अभिनेताओं को सराहना तो मिलती थी, लेकिन लोकप्रियता नहीं।
अमिताभ अपनी पहली ही फिल्म से अपनी पहचान बनाने में सफल रहे थे, लेकिन व्यावसायिक फिल्म-निर्माताओं के लिए इतनी पहचान काफी नहीं थी।
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