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Amitabh Bachchan: जिसे सबने नकारा, उसे K.A. अब्बास ने कैसे बना दिया ‘सदी का महानायक’!

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जब लंबाई बन गई बाधा, तब ख्वाजा अहमद अब्बास ने देखा भविष्य का सितारा — जानिए कैसे मिला सात हिंदुस्तानीमें पहला मौका

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Amitabh Bachchan: ख्वाजा अहमद अब्बास-जिन्हें के.ए. अब्बास के नाम से भी जाना जाता है-कोई मामूली व्यक्ति नहीं थे। वे बहुमुखी प्रतिभा और एक असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी थे।

वर्षों पहले, चालीस के दशक में, उन्होंने अपने कुछ उत्साही और प्रतिभाशाली साथियों के साथ मिलकर बंबई में ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) की स्थापना की थी। उन्होंने उन दिनों के संघर्षरत अभिनेता बलराज साहनी को न सिर्फ ‘इप्टा’ द्वारा मंचित अपने एक नाटक के निर्देशन का अवसर दिया था, बल्कि उन्हें अपनी पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ का नायक भी बनाया था।

बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इसी फिल्म ने उस रास्ते के काँटे साफ किए थे, जिस पर चलकर बाद में बिमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ और सत्यजित रे की ‘पायेर पांचाली’ जैसी फिल्में बनीं।

ख्वाजा अहमद अब्बास एक अच्छे पटकथा लेखक थे। उन्होंने पहले व्ही. शांताराम और फिर राज कपूर के लिए फिल्में लिखीं। बल्कि ‘आवारा’ (1951) से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) और ‘बॉबी’ (1973) तक वे राज कपूर के स्थाई लेखक बने रहे।

एक सफल कहानीकार, नाट्यकार और पटकथा-लेखक होने के साथ-साथ ख्वाजा अहमद अब्बास एक फिल्म निर्माता और निर्देशक भी थे। लेकिन एक व्यावसायिक निर्माता-निर्देशक के रूप में स्थापित होने की बजाय वे हमेशा प्रयोगात्मक फिल्में बनाते रहे। उन्होंने राज कपूर के लिए ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, और ‘बॉबी’ जैसी भव्य फिल्में लिखीं, लेकिन ‘नया संसार’ के अपने बैनर तले ‘मुन्ना’, ‘ग्यारह हजार लड़कियाँ’, ‘आसमान महल’, ‘शहर और सपना’ और ‘बंबई रात की बाँहों में’ जैसी प्रयोगात्मक फिल्में बनाईं। यह भी कहा जाता है कि जो पैसा वे अपने व्यावसायिक फिल्मी-लेखन से कमाते थे, उसे इन प्रयोगात्मक फिल्मों पर खर्च कर देते थे।

फिल्म-उद्योग से जुड़े होने के बावजूद अब्बास साहब एक फिल्मी व्यक्ति नहीं थे। बहुत से लोग उन्हें एक पत्रकार के रूप में भी जानते हैं। वे कई वर्षों तक ‘ब्लिट्ज’ नामक साप्ताहिक समाचार-पत्र में ‘लास्ट पेज’ यानी ‘आखिरी पन्ना’ लिखते रहे। उन दिनों बहुत-से लोग पहले पन्ने के बाद सीधे आखिरी पन्ने पर पहुँचना पसंद करते थे।

उनकी पिछली फिल्म ‘बंबई रात की बाँहों में’ बंबई के उस आधुनिक और विकृत चेहरे की कहानी थी जिसे सिर्फ रात के अँधेरे में देखा जा सकता था। इस फिल्म में उन्होंने मशहूर कॉमेडियन आगा के बेटे जलाल आगा को नायक के रूप में लिया था।

अब वे गोवा के मुक्ति-संघर्ष को लेकर ‘सात हिंदुस्तानी’ नामक एक फिल्म बनाना चाहते थे। यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित थी। मधुकर नामक अब्बास साहब के एक सहायक इस मुक्ति-संघर्ष से करीब से जुड़े रहे थे। वे अपने कुछ साथियों के साथ पैदल चलकर गोवा पहुँचे थे, और वहाँ के पुलिस स्टेशनों पर तिरंगा झंडा फहराने में सफल रहे थे। गोवा तब तक भारत का अंग नहीं बना था, और पुर्तगालियों के कब्जे में था। इसलिए उन सबको गिरफ्तार कर लिया गया था।

अब्बास साहब ने इस घटना को एक कहानी का रूप दे दिया था, जिसके माध्यम से वे राष्ट्रीय एकता और भाईचारे का संदेश भी देना चाहते थे। उनकी कहानी में सात मुख्य पात्र थे एक स्त्री और छह पुरुष। स्त्री गोवा की रहने वाली थी, जबकि पुरुषों को भारत के अलग-अलग हिस्सों से संबंधित दिखाया गया था। इनमें एक हिंदू था तो एक मुसलमान, एक तमिल था तो एक पंजाबी, एक बंगाली था तो एक मराठी। यही ‘एक स्त्री और छह पुरुष’ उनके ‘सात हिंदुस्तानी’ थे।

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अब्बास साहब चाहते थे कि इन पात्रों के लिए अभिनेताओं का चुनाव करते समय भी राष्ट्रीय एकता का ध्यान रखा जाए। अर्थात् अगर कोई बंगाली अभिनेता है तो वह बंगाली पात्र की भूमिका निभाने की बजाय पंजाबी या तमिल पात्र की भूमिका निभाए।

यही किया भी गया। बंगाल के उत्पल दत्त को पंजाबी पात्र की भूमिका दी गई, जबकि केरल के मधु से बंगाली बुलवाने का फैसला किया गया। जलाल आगा को मराठी पात्र की भूमिका में ढलने के लिए कहा गया तो उत्तर प्रदेश के मधुकर से तमिल का अभ्यास करने के लिए कहा गया। महमूद के छोटे भाई अनवर अली को उर्दू से नफरत करने वाले हिंदू स्वयंसेवक की भूमिका सौंप दी गई।

अब सिर्फ एक मुस्लिम पात्र बचा था जिसके लिए किसी उपयुक्त अभिनेता की तलाश जारी थी।

अब्बास साहब चाहते थे कि सातों हिंदुस्तानी उम्र और कद-काठी के हिसाब से भी एक-दूसरे से अलग दिखें। इस दृष्टि से उन्हें इस दल में एक लंबे और दुबले-पतले युवक की कमी नजर आ रही थी। अमिताभ का चित्र देखते ही उन्हें लगा था कि मुस्लिम पात्र की भूमिका के लिए यह युवक बिल्कुल उपयुक्त रहेगा। लेकिन किसी फैसले पर पहुँचने से पहले वे उससे मिलना और उसकी क्षमताओं को परख लेना चाहते थे।

अपनी आत्मकथा ‘आय एम नॉट एन आयलैंड’ में अब्बास साहब ने अमिताभके साथ अपनी पहली मुलाकात का बहुत दिलचस्प वर्णन किया है।

उनका संदेश पाने के कुछ दिन बाद जो लंबा-ऊँचा युवक जुहू के उनके दफ्तर में उनसे मिलने पहुँचा, वह अपने चूड़ीदार पाजामे और कुर्ते में उन्हें और भी लंबा प्रतीत हुआ था।

“आपका नाम क्या है?” अब्बास साहब ने उसे बैठने के लिए कहने के बाद पूछा था।

“अमिताभ।”

“अमिताभ?” अब्बास साहब ने दोहराया था। उन्होंने इस तरह का नाम पहले कभी नहीं सुना था। “इसका मतलब क्या होता है?” उन्होंने पूछा था।

“सूर्य। वैसे गौतम बुद्ध के लिए भी इस नाम का प्रयोग किया जाता है।”

“पढ़ाई कहाँ तक की है?”

“दिल्ली यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया है।”

“क्या इससे पहले भी किसी फिल्म में काम किया है?”

“जी नहीं। किसी ने मौका ही नहीं दिया।”

“अब तक किन-किन लोगों से मिल चुके हो?”

अमिताभ ने झिझकते हुए कुछ नाम गिनाए थे तो अब्बास साहब ने पूछा था, “इन सबने मौका क्यों नहीं दिया?”

“इन लोगों का कहना है कि मैं इनकी हीरोइनों की तुलना में बहुत ज्यादा लंबा हूँ।”

“ओह!” अब्बास साहब मुस्करा दिए थे, “खैर, मेरे साथ ऐसी कोई मुश्किल नहीं है। दरअसल मेरी फिल्म में उस तरह की कोई हीरोइन ही नहीं है। अगर होती भी तो आपको लेने में मुझे कोई संकोच न होता।”

“क्या आप मुझे सचमुच ले रहे हैं?” अमिताभ ने आश्चर्य से पूछा था, “बिना किसी स्क्रीन-टेस्ट के?”

“वह बाद में देखेंगे। पहले मैं आपको फिल्म की कहानी सुनाना चाहता हूँ और आपके पात्र के बारे में आपकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ।”

अब्बास साहब ने उन्हें फिल्म की कहानी सुनाई थी और फिर उनसे पूछा था कि उन्हें कौनसा पात्र पसंद है। अमिताभ को पंजाबी और मुस्लिम दोनों ही पात्र पसंद थे। आखिर मुस्लिम पात्र को लेकर दोनों के बीच सहमति बन गई थी।

अमिताभ ने कहा था, “मैं मुस्लिम पात्र की भूमिका इसलिए करना चाहता हूँ क्योंकि उसके इरादों को लेकर शुरू से ही एक संदेह बना रहता है। बिल्कुल आखिर में पता चलता है कि वह भी दूसरों की तरह एक सच्चा देशभक्त है।”

भूमिका की बात तय हो जाने के बाद अब्बास साहब ने कहा था, “मैं आपको पाँच हजार से ज्यादा नहीं दे सकूँगा।”

अमिताभ के चेहरे पर झिझक के भाव देखकर उन्होंने पूछा था, “क्या आपको पाँच हजार कम लग रहे हैं?”

“मैं कलकत्ता से 1600 रुपए महीने की नौकरी छोड़कर आ रहा हूँ,” अमिताभने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा था।

“1600 रुपए महीना?” अब्बास साहब ने आश्चर्य से उसके चेहरे की तरफ देखा था, “और आप इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर फिल्मों में स्ट्रगल करने चले आए?”

“जोखिम तो उठाना ही पड़ता है!” अमिताभ ने धीरे से लेकिन दृढ़तापूर्वक कहा था।

इसके बाद कांट्रेक्ट बनवाने के लिए उनका नाम-पता पूछा गया तो अमिताभने अपने पिता का नाम बताया डॉ. हरिवंशराय बच्चन।

“डॉ. हरिवंशराय बच्चन?” अब्बास साहब चौंककर उनके चेहरे की तरफ देखने लगे थे, “यह बात आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताई? डॉ. बच्चन मेरे सहकर्मी हैं। हम दोनों ही सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड कमेटी के सदस्य हैं। मैं उनकी अनुमति के बिना आपको अपनी फिल्म में नहीं ले सकता।”

अमिताभ मुस्कराए बिना न रह सके थे। उन्होंने अब्बास साहब की आँखों झांकते हुए कहा कि क्या आपको मेरी शक्ल सूरत, उम्र देखकर सचमुच लगता है कि मैं घर से भागकर आया हूं।

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