anil biswas

Anil Biswas biography in hindi: अनिल विस्वास एक प्रख्यात फिल्म संगीतकार थे। 1940 व 1950 के दशक में फिल्मों में बहुत सक्रिय और सफल रहे। उन्हें कभी-कभी फिल्म संगीत में पूरे ऑर्केस्ट्रा के प्रयोग का श्रेय दिया जाता है। वे तलत महमूद, मुकेश और लता मंगेशकर जैसे महान गायकों के सलाहकार थे। अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे आकाशवाणी और टेलीविजन से जुड़े रहे।

प्यारे ‘अनिल दा’, Anil Biswas Personal Life  

Anil Biswas biography in hindi: अनिल कृष्ण विस्वास को उनकी मित्र मंडली प्यार से ‘अनिल दा’ कहती थी। उनका जन्म ७ जुलाई, १९१४ को बारीसाल (अब बँगलादेश में) में हुआ। उनके पिता जगदीश चंद्र विस्वास एक सरकारी मुलाजिम थे माँ संगीत प्रेमी थीं उन्होंने अनिल को छोटी उम्र में ही संगीत की बुनियादी शिक्षा दिलानी आरंभ कर दी थी।

बचपन में ही अनिल को संगीत और थिएटर में आनंद आने लगा था। जल्दी ही तबला वादन और गायकी में वे कुशल हो गए और थिएटर में परफॉर्म करने लगे। वे खयाल, ठुमरी और दादरा के साथ-साथ सूफी संगीत में भी जुगलबंदी करते थे।

6 बार जाना पड़ा जेल

Anil Biswas biography in hindi: स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण अनिल बिस्वास को 6 बार जेल जाना पड़ा। उस समय वे हाई स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे और पुलिस की आँख की किरकिरी बने हुए थे। इस मुश्किल भरे दौर में सन् 1930 में उनके पिता का निधन हो गया। उन्होंने निजी स्कूल शिक्षक की नौकरी की। फिर मेगाफोन ग्रामोफोन कंपनी और बाद में रंगमहल थिएटर ग्रुप के सदस्य बन गए। वहाँ वे अभिनेता, गायक और सहायक संगीतकार का कार्य करते थे।

वहां वे तीन साल तक रहे और बहुत नाम कमाया। सन् 1934 में उन्होंने कलकत्ता छोड़ दिया और बंबई आ गए। यहां कुछ समय उन्होंने ‘कुमार मूवीटोन’ में काम किया और फिर उसे छोड़कर बतौर संगीतकार ‘ईस्टर्न आर्ट सिंडीकेट से जुड़ गए। यहां सन 1930 से 1936 तक वे 11 फिल्मों से जुड़े रहे। सन् 1936 में वे सागर मूवीटोन से जुड़ गए। वहाँ उन्होंने कंपोजर, सहायक संगीत निर्देशक, गायक और कभी-कभी संगीत निर्देशक की हैसियत से कार्य किया। इस दौरान उन्होंने बहुत सी फिल्मों के लिए कार्य किया। लेकिन महबूब खान की ‘जागीरदार’ (1937) फिल्म से उन्हें लोकप्रियता मिली और यह सुनिश्चित हो गया कि वे हिट गीत दे सकते हैं। वे सन् 1939 तक सागर मूवीटोन से जुड़े रहे।

सन् १९३९ में सागर मूवीटोन का नेशनल स्टूडियो में विलय हो गया। एक साल बाद अनिल पुनः इससे जुड़ गए और सन् १९४२ तक यहीं रहे। इस दौरान उन्होंने अनेक फिल्मों के लिए काम किया, जिनमें महबूब खान की ‘औरत’ (१९४०), ‘बहन’ (१९४१) और ‘रोटी’ (१९४२) प्रमुख रहीं।

मुकेश को दिया पहला ब्रेक

सन् १९४२ से १९४७ तक वे बॉम्बे टॉकीज से जुड़े रहे। इस दौरान उन्होंने कई सफल फिल्में दीं। ‘किस्मत’ (१९४३) ने उनकी किस्मत का ताला खोल दिया और इस फिल्म ने थिएटरों में सबसे लंबे समय तक चलने का रिकॉर्ड बनाया। इस रिकॉर्ड को १९७८ में ‘शोले’ फिल्म ने तोड़ा इस दौरान आई ‘ज्वार-भाटा’ (१९४४) और ‘मिलन’ (१९४६) ने भी सफलता के नए कीर्तिमान बनाए।

Anil Biswas biography in hindi: अनिल बिस्वास ने ही ‘पहली नजर’ (१९४५) में गायक मुकेश को ब्रेक दिया। उन्होंने उन्हें सुझाव भी दिया कि वे के. एल. सहगल की नकल की बजाय खुद की गायन शैली विकसित करें।

तलत मेहमूद को आरजू में दिया ब्रेक

अनिल बिस्वास ने तलत मेहमूद को फिल्म ‘आरजू’  में ब्रेक दिया। तलत की आवाज में एक स्वाभाविक कंपन था, जो कई संगीतकारों को क्रुद्ध कर देता था लेकिन अनिल दा ने उन्हें सुझाव दिया कि वे इस कंपन को बनाए रखें और इसे अपने निजी ठप्पे के रूप में विकसित करें।

पहले-पहल जब तलत अनिल दा से मिले तो वे अभिनेता बनना चाहते थे। लेकिन अनिल दा ने उन्हें सलाह दी कि अभिनय में नहीं, अपितु गायन में उनका भविष्य ज्यादा उज्ज्वल रहेगा।

आशा से हुआ अनिल दा का तलाक

अनिल बिस्वास ने लता मंगेशकर को गायन के बीच में स्वर नियंत्रण की तकनीक सिखाने और उसे निखारने में भी मदद की। इसी बीच अनिल दा ने अभिनेत्री आशा लता से विवाह किया। उनके तीन बेटे व एक बेटी हुए। दुर्भाग्य से १९५४ में उनका तलाक हो गया।

सन १९४७ से अनिल ने स्वतंत्र रूप से कार्य करना आरंभ कर दिया। १९५० के दशक में बतौर संगीत निर्देशक उन्होंने बहुत सी फिल्मों में कार्य किया। इनमें ‘अभियान’ (१९५१) और ‘परदेसी’ (१९५७) उल्लेखनीय हैं।

मीना कपूर से हुई दूसरी शादी

इसी दौरान अनिल ने गीतकार मीना कपूर से दूसरा विवाह कर लिया। यह विवाह आखिर तक चला। सन् १९६१ उनके जीवन का निर्णायक वर्ष रहा। उनके छोटे भाई प्रदीप का एक कार दुर्घटना में निधन हो गया। फिल्मों में अब संगीत का टेस्ट बदलने लगा था। अंततोगत्वा वे बंबई छोड़कर दिल्ली शिफ्ट हो गए।

दिल्ली में जीवन कुछ अलग तरह का था। अभी दो फिल्में उनके हाथ में थीं- ‘सौतेला भाई’ (१९६२) एवं उनकी आखिरी फिल्म ‘छोटी-छोटी बातें’ (१९६५) । दुर्भाग्य से दोनों ही बॉक्स ऑफिस पर पिट गईं।

जेएनयू के उप कुलपति

दिल्ली आकर अनिल आकाशवाणी और दूरदर्शन से जुड़ गए। इस दौरान वे दो साल के लिए जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति भी रहे। उन्होंने दूरदर्शन के पहले धारावाहिक ‘हम लोग’ (१९८४) तथा ‘बैसाखी’ एवं ‘फिर वही तलाश’ के लिए संगीत भी दिया। फिल्म डिवीजन के साथ उन्होंने अनेक वृत्तचित्रों के लिए कार्य किया। सन् १९८६ में उन्हें ‘संगीत नाटक अकादमी अवार्ड’ प्रदान किया गया। दिल्ली में ३१ मई, २००३ को ८९ वर्ष की आयु में संगीत संस्था के रूप में संगीत-प्रेमियों में लोकप्रिय इस महान् संगीतकार का निधन हो गया।

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