1857 की क्रांति: 14 सितंबर के बाद हालात बेकाबू थे। अंग्रेजी सैनिक और क्रांतिकारी पूरी तरह तैयार थे। उधर, मौलवी मुहम्मद बाकर अपने देहली उर्दू अखबार का वह अंक निकालने की तैयारी कर रहे थे, जिसके बारे में उन्हें शक था कि यह अखबार का आखरी अंक होगा।

उदास और हार मान चुके संपादकीय में वह पश्चाताप और खुदा के रहस्यमयी तरीकों को न समझ पाने के बारे में लिखते हैं:

“हिम्मत मत हारी, अपने विश्वास से काम लो और खुदा की जात में अपना यकीन मजबूत रखो। हालांकि काफिर हमारी तरफ बढ़ रहे हैं और हर रात एक नया मोर्चा खोल देते हैं। लेकिन तुम अपनी विजयी फौज की हिम्मत की दाद दो और देखो कि किस तरह वह रात-दिन काफिरों पर हमले करते हैं।

अगर अल्लाह हमारे रास्ते में रुकावटें पैदा कर रहा है, तो उसका भी कुछ मकसद होगा। किसको मालूम है कि अनजाने में हमसे नाइंसाफी या घमंड का कौन सा काम हो गया हो जिसकी हमको सजा मिल रही है।

हमें खुदा से माफी और सही रास्ता पाने की दुआ मांगनी चाहिए और दूसरे इंसानों पर किसी तरह का जुल्म करने से बचना चाहिए और उनका नाजायज फायदा उठाकर उन्हें किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए।

कहा जाता है कि शहर के लोगों और खासतौर से गरीबों का बुरा हाल है। इस वक्त इसकी बहुत जरूरत है कि उन्हें राहत पहुंचाई जाए ताकि वह सच्चे दिल से बादशाह सलामत की फतह की दुआ कर सकें।

याद रखो कि जब सही वक्त आएगा और जब अल्लाह चाहेगा, तो वह हमें फौरी फतह देगा। कौन जानता है कि वह हमें किस इम्तेहान और मुसीबत से गुजार रहा है, जिससे हमारी फतह में देर हो रही है। सिर्फ उसी को अनजान चीजों का ज्ञान है। अक्लमंद और समझदार लोग सिर्फ उसके करम का इंतजार करते हैं।

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