जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जमता था मजमा

शाहजहांनाबाद (Shahjahanabad) की ऊंची फसीलों (दीवार) के पीछे बसे किस्से कहानियों का एक ऐसा जहां है जहां हर एक शख्स एक किरदार हुआ करता था। उन किरदारों के हंसने, बोलने, गुफ्तगू के अंदाज को कोई था जो करीब से देखा करता था और अपनी कहानियों में उन किरदारों को गढ़ा करता था। जितनी इतमिनान से इन किस्सों को गढ़ा जाता था उतनी ही दिलकश अंदाज में इन्हें सुनाया भी जाता था। इन किस्सों को कहने वालों की आवाज में कशिश हुआ करती थी कि हर कोई इनके कायल हो जाया करते थे। यह बात करीब सौ साल पुरानी हो गई है लेकिन किस्सा गोई रवायत दिल्ली (Delhi) की तंग गलियों में आज भी सांसे ले रही हैं। किस्सा गो (Dastaan-E-Dastangoi) खानदान से ताल्लुक रखने वाले इस रवायत को नई पीढ़ी को सीखा रहे हैं और कई किस्सा गो बना रहे हैं।

सीताराम बाजार (sitaram bzar) की शंकर गली से हर दुपहरी किस्से सुनाने की आवाजें गूंजती हैं, कभी ठहाके भी लगते हैं। इनकी गूंजती आवाज से एक बार के लिए ही सही लेकिन राहगीर के कदम रुक से जाते हैं और उस झरोखे की ओर उत्सुकता से देख लेते हैं जहां किस्सा गोई खेली जा रही है। इस गली में ही इरशाद आलम शेख फारुकी रहते हैं। इन दिनों बच्चे यहां अकड़ बकड़ बम्बे बो नाम के किस्से को पेश करने का अंदाज सीख रहे हैं। इसके अलावा एक कमरे में किस्सा सुनाने के लिए किस्से तैयार किए जा रहे हैं। ऐसे किस्से जिसमें दीवार के पीछे की दिल्ली का जिक्र होता है। दिल्ली की तहजीब के किस्से सुनाए जाते हैं। कैसे दिल्ली वाले एक दूसरे से बोला करते थे, कैसे हाजिर जवाब कबाब वाला उधार मांगने वालों से पीछा छुड़ाया करता था और कैसे मशक वालों को लोग उल्लू बना कर पानी पी जाया करते थे और कैसे नानी की बकरी को शरारती शबीर से छुड़ाया जाने के किस्से हुआ करते थे। ना जाने कितनी कहानियां और कितने फसाने इन गलियों में बने। कुछ सुनाए गए तो कुछ गलियों में गुम हो गए। इन्हीं किस्सों को गर्मियों की छुट्टियों में टैलेंट समूह के सदस्य जमा करने में जुटे हैं और पुरानी दिल्ली के अलग अलग स्कूलों मंें जा कर इस कला से बच्चों को रूबरू करा रहे हैं। स्कूल भी इस रवायत को पुर्नजीवित करने में दिल्ली के किस्सा गो का साथ दे रहे हैं। किस्सा गोई कार्याशाला में दिल्ली की चार सौ साल पुरानी रवायत को जीवंत करने का अहम रोल अदा कर रहे हैं किस्सा गो। (किस्सा गो किस्सा सुनाने वालों को कहा जाता है)। किस्सा गो ईशा भार्गव बताती हैं कि वे मालीवाड़ा में रहती है और उस गली की कहानी जमा करने के लिए बुजुर्ग के साथ बैठकें करती हैं और किस्सा जमा करती हैं। मीना बाजार के अध्यक्ष इकबाल रजा खान भी जामा मस्जिद और बाजार के बीच बसी बाजारों की किस्से बताते हैं। किस्सा गोई के इस समूह में सबसे छोटी गो सात साल की माहिन है जो तोता मैना, भानुमती का पिटारा, अलिफ लैला जैसी कई कहानी में से किस्से निकाल कर सुनाती है। पांचवी में पढ़ने वाली अलीहा, कालेज में जाने वाले 21 वर्षीय रोहित, अता, रिया, अलीजा, अलनवाज, शत्रुग्घन, अरमान सभी अपने गर्मियों की छुट्टियों में हेरीटेज वाक भी कराते हैं जिसके दौरान कई किस्से भी सुनाते हैं। इससे इन बच्चों को पॉकेट मनी भी मिल जाते हैं। इरशाद बताते हैं कि अब इस कला को बच्चे चाव से सीखने में रुचि दिखा रहे हैं। मुल्ला नसीरुद्दीन के किस्से भी सुना रहे हैं।

तांगे वाले किस्सा गो हुआ करते थे

इरशाद आलम खूबी, किस्सा गो

पुरानी दिल्ली को समझने के लिए इनमें बनी हवेलियां, बाजार, गलियों के नामों को के पीछे की कहानियां भी समझने की जरुरत है। पुरानी दिल्ली की रवायतों में से एक किस्सागोई भी शुमार है। किस्सा गो तीन तरह के हुआ करते थे। एक किस्सा गो जामा मस्जिद के चबूतरे पर किस्से सुनाया करते थे, तो कुछ तमाशबीन हुआ करते थे, तो कुछ तांगेवाले किस्से सुनाया करते थे। तांगे वालों की उस कौम को शेख फारुकी या गधोरियान कहा जाने लगा। दरअसल, शेख फारुकी तांगा चलाने के साथ बहुत अच्छे किस्सा गो हुआ करते थे। बाद में इनके नाम पर कौम का नामकरण हो गया। पहले पुरानी दिल्ली से महरौली तक जाने के लिए तांगा ही साधन हुआ करता था। इस लंबे सफर में तांगे वाले रोचक किस्से सुनाया करते थे। जाहिर है अच्छे किस्से सुनाने वालों की कमाई भी खूब हुआ करती थी। इनकी कहानियां आस पड़ोस की गली मोहल्लों से ही प्रेरित हुआ करती थी। पुरानी दिल्ली का तुर्कमान गेट में बाबरचियों का मोहल्ला, तेलियों का मोहल्ला, मशक पानी वालों का मोहल्ला, नाई का मोहल्ला के साथ कई मोहल्ले हैं। इन सभी मोहल्लों के किरदारों में कुछ खास बात होती थी। इनके किस्सों को लोग पसंद करते थे। उन सभी किस्सों को जमा किया जा रहा है और उसे दिल्ली के तमाम स्कूल में जा कर बच्चों को सुनाया जा रहा है। बच्चे भी इस रवायत में काफी रुचि दिखा रहे हैं।

अजब-गजब किस्से कहानियां

फौजिया, दास्तान गो

सदियों से दादा-दादी, नाना- नानी बच्चों को दुनियादारी सिखाने के लिए कहानियों का सहारा लेते आए हैं। बच्चे शायद कहानियों और किस्सों से जितनी जल्दी सीख जाते हैं उतनी जल्दी पढ़ कर भी नहीं सीख पाते। किस्से -कहानियों की यही खूबी है जो सदियों पुरानी रवायत आज भी चली आ रही है। आज से तीन-चार सौ साल पहले अरब देश से यह रवायत भारत में आई थी, तब फारसी और उर्दू का जुबान में किस्सा गोई खेली जाती थी। मुगल दरबारों में दास्तान गोई हुआ करती थी। उसके कलाकारों का रुतबा हुआ करता था। धीरे धीरे दिल्ली के लोगों ने भी इस हुनर को सीखा। तब से यह रवायत चल रही है लेकिन इसे कहने और सुनाने वाले सिर्फ मर्द हुआ करते थे। अब इस क्षेत्र में लड़किया भी आ रही है। इस कला की सबसे बड़ी चुनौती है लोगों को बांध कर रखने की। जैसे स्टेज पर रंगकर्मी अपने अभिनय के जादू से लोगों को बांधे रखता है, वैसे ही इसमें अपनी कहानियों, संवाद और अंदाज से लोगों को बांधे रखने की चुनौती होती है। खासकर आज के समय में जब मनोरंजन के कई आधुनिक माध्यम उपलब्ध हो। दास्तान गोई में भी पुरानी दिल्ली को दिखाने की कोशिश रहती है जैसे घुम्मन कबाबी की कहानी। मियां घुम्मन जामा मस्जिद के गेट के बाहर कबाब की दुकान लगाया करते थे। अब उनके पास आने वाले ग्राहकों की कई रोचक किस्से होते थे। अशरफ सुबूही दहलवी की किताब दिल्ली के चंद अजीब हस्तियां में कई ऐसे रोचक पात्र हैं जिसकी कहानियां आज भी लोग मजे लेकर सुनते हैं। सुनाने वालों के लिए भी इनकी कहानियां रोचक लगती हैं। इनमें मल्लन नाई, मिर्जा चपाती जैसे किरदार भी हैं। कुल मिलाकर सौ साल पहले की दिल्ली के रहन सहन, बोली, लहजा, किस्से सभी कुछ का लब्बोलुआब है दास्तान गोई और किस्सा गोई। बच्चों को सीखाने के लिए उनके जैसे मासूम से किस्से लेने पड़ते हैं, जैसे एक कजरी गाय झूले पर, नन्हीं की नानी, तुकताई, लिहाफ जैसे कई रोचक किस्से सुनाए जाते हैं।

जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जमता था मजमा

दानिश हुसैन, रंगकर्मी (दास्तान गो रह चुके हैं)

मुगलों के जमाने में जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर दास्तान गोई हुआ करती थी। लोग नमाज के बाद चाव से दास्तान सुनने आ जाया करते थे क्योंकि कल के किस्से को आगे बढ़ाया जाता था। एक कहानी कई हफ्ते चला करती थी। पुराने जमाने में न बिजली हुआ करती थी और न ही टीवी, ऐसे में किस्सा गो और दास्तान गो समाज में अहम स्थान रखा करते थे। वर्ष 1870 में नवल किशोर प्रकाशक ने दिल्ली की कहानियों पर 46 अंकों में संग्रह छापा। फिर देवकी नंदन खत्री ने भी चंद्रकांता उपन्यास लिखा। दास्तान गोई में ज्यादातर लंबी कहानियां होती हैं जो सिलसिलेवार तरीके से सुनाई जाती है। इनमें अमीर हमजा, चंद्रकांता जैसी लंबी कहानियां सुनाई जाती है। ज्यादातर ऐसी सफर की दास्तां सुनाई जाती है जिसमें हैरतअंगेज कारनामें, जादुई तिल्सिम, अय्यार के अजब गजब किस्से होते हैं। मुंशी मुहम्मद हुसैन द्वारा लिखित तिल्सिम होशरुबा की भी रोचक कहानियां हैं। इसको वर्ष 2005 में दोबारा से जोर शोर से शुरू किया गया। अब तो कई थियेटर कलाकार भी इस कला को सीख रहे है।

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