थामस मेटकॉफ और अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बीच की तल्खियां इतिहास में दर्ज है। मेटकॉफ बहुत ही सख्त जिंदगी जीता था। उसकी दिनचर्या घडी की सुईयों से निश्चित होती थी। वह बहुत ही सख्त था। लेकिन दिल्ली शहर में ना जाने कैसा जादू है, जो मेटकॉफ भी इस शहर से दिल लगा बैठा।

मेटकॉफ ने अपने खतों में इस शहर का रुहानी जिक्र किया है। वो लिखता है कि:-

इस शहर में कुछ ऐसा जादू है जिससे कोई बेताल्लुक नहीं रह सकता। इसके अतीत की शानो-शौकत के खंडहर जो हर तरफ मीलों तक बिखरे पड़े हैं, उनको देखकर दिमाग सोच में डूब जाता है। खाक में मिलते हुए महल, बेशुमार इमारतें और मकबरे जो भविष्य के लोगों को अपने वासियों की कभी न खत्म होने वाली शोहरत की याद दिलाते हैं फिर भी लोग वहां से बगैर देखे बगैर जाने गुजर जाते हैं। लेकिन इन सबको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।”

 और रफ्ता रफ्ता मेटकाफ नियमित रूप से एक के बाद एक खंडहर में जाता रहा और उसने दिल्ली आर्कियालोजिकल सोसाइटी की बुनियाद डाली। जिसका उद्देश्य दिल्ली की पुरानी इमारतों का इतिहास मालूम करना था और जिसके एक बहुत उत्साहपूर्ण सदस्य सैयद अहमद खां भी थे। सोसाइटी की अपनी एक पत्रिका भी निकलती थी जिसमें थॉमस मेटकाफ खुद शहर के बुद्धिजीवियों से लेख लिखने को कहता था और खुद उनका उर्दू से अंग्रेज़ी में अनुवाद करता था।

हिंदुस्तान के बहुत से अंग्रेज़ ऐसे थे जो अपने यहां के निवास को अस्थायी मानते थे और बेचैनी से उस वक्त का इंतज़ार करते जब वह इंग्लैंड वापस जाएं और अपनी जमा की हुई पूंजी से वहां अपने लिए आराम का सामान मुहैया करें। इसके विपरीत, थॉमस मेटकाफ ने अपने खानदान का सब जमा- जत्था

हिंदुस्तान लाने का फैसला किया और अपने लिए दिल्ली में एक नहीं बल्कि दो बड़े-बड़े घर बनवाए। इसके अलावा एक उनका नया सरकारी दफ्तर था जो लूडलो कासल कहलाता था। यह शहर की दीवारों के बाहर उत्तर में नई ब्रिटिश सिविल लाइंस में था।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here