दिल्ली में अखाड़े का दृश्य देखते ही बनता था। दो-तीन पठ्ठे दांव-पेंच में जुटे हैं। किसी ने अपने प्रतिस्पर्धी की टांगों में सिर देकर उठा लिया और सिर से ऊंचा करके पटका तो आवाज आई-क्या धोबीपाट मारा है। कोई पट पड़ा है तो उसे चित करने की कोशिश की जा रही है। टांगों को पकड़कर मरोड़ा तो पट पड़ा पहलवान बोला- दिए जा ताव होता क्या है। कोई फसक्कड़ा मारकर बैठ गया तो उठने का नाम नहीं लेता। ऐसा जमकर बैठा है कि हिलाए नहीं हिलता। कोई बहुत देर से पड़ा ऐंड रहा है तो उस्ताद ने उठकर वह चपड़ास जमाई कि होश ठिकाने लग गए। delhi historical akhare

कोई हाथ चौड़े करके शेर डंड पेल रहा है। खलीफ़ा बता रहे हैं कि ऊपर उठते समय पेट की नसें खिंची रहें। कोई सीपी से पसीना सूत रहा है तो कोई ख़म ठोक कर कह रहा है-आ जाओ, हो जाए पकड़। पट्टे एक-दूसरे को चित्त करने की कोशिश कर रहे हैं, कभी पैर के अड़ंगे से तो कभी बलथम से। खलीफ़ा दांव भी बता रहे हैं और उनके तोड़ भी। किसी ने कौली भरने की कोशिश की तो दूसरा कुहनी मारकर एक तरफ़ खड़ा हो गया। किसी ने ऐसा रैपटा जमाया और फिर चपड़ास मारी कि घुमाकर रख दिया। पठ्ठे रौला मचा रहे हैं, रेपटे मार रहे हैं, लप्पा डक्की हो रही है, धौल-धप्पा और धींगा-मुश्ती में लगे हैं।

अगर किसी के रगड़ या चोट लगकर खून निकल आया तो अखाड़े की गीली मिट्टी मुट्ठी में भरकर उस पर मल देते और इलाज हो जाता। नस चढ़ जाती या मोच आ जाती तो खलीफ़ा ही उसे झटका मारकर ठीक कर देता। खलीफ़ा को जिस्म की एक-एक हड्डी और नस का पता होता। दांव सिखाने के लिए खुद खलीफा कभी अखाड़े में उतर आता और कई-कई पट्टों को चिपटा लेता। पठ्ठों को एक-एक करके उसी दांव-पेंच से गिराता जाता और साथ ही साथ तोड़ भी बताता जाता।

जब कसरत और मेहनत खत्म हो जाती तो शागिर्दों और पठ्ठे आराम करते और पसीना सुखाते। यह मेहनत दो-तीन घंटे से कम की न होती। आराम करने के साथ कई पट्टे बदन पर तेल का हाथ फिर मारते। फिर सब नहाने के लिए पास के कुएं से पानी खींचते और खूब मल-मल कर नहाते घर पहुंचकर या रास्ते में ही किसी मशहूर हलवाई की दुकान से कम-से-कम एक सेर औटा हुआ दूध पीते। उन सबकी खुराक में दूध के अलावा बादाम भी शामिल होते। अगर उस्ताद किसी शागिर्दों का जरा-सा भी पेट बढ़ा हुआ देख लेता तो वह उसे एक-दो महीने के लिए दूध छोड़ने और उसकी बजाय बादाम की ठंडाई पीने की हिदायत देता। शागिर्दों और पट्टे रात को पानी में चने की दाल भिगोकर रखते और सुबह उसे खाते। यह बड़ी शक्तिदायक खुराक़ समझी जाती थी।

हर अखाड़े में उसके मुहल्ले की मान-मर्यादा जुड़ी होती थी। अगर किसी अखाड़े का पठ्ठा अपने अखाड़े या उस्ताद के बारे में किसी दूसरे अखाड़े के पठ्ठे से कोई बुरे शब्द सुन लेता तो उनकी टक्कर हो जाती। बुराई करने वाले से जब तक चीं नहीं बुलवाई जाती उसे छोड़ा न जाता। लेकिन अगर वह लड़का जीदार और तगड़ा और वीं नहीं, तो बोलता फिर बीच-बचाव करा दिया जाता और जीतने वाले को शाबाशी मिलती, पीठ ठोंकी जाती और शरबत पिलवाया जाता। लेकिन मनमुटाव नहीं होता। एक-दूसरे का दबेल नहीं बल्कि यार बन जाता और फिर कभी उस्ताद की दुआ पाकर दांव-पेच की काट समझकर आपस में भिड़ंत होती।

अखाड़ों में रख-रखाव और ठीक-ठाक करने का सारा काम शागिर्द और पठ्ठे ही करते थे। हर शागिर्द के दिल में अपने अखाड़े के लिए उतनी ही इज्जत होती थी जितनी पाठशाला या मदरसे के लिए बल्कि उससे भी ज्यादा। बिना किसी के कहे शागिर्द और पठ्ठे अपने अखाड़े की जमीन को समतल और भुरभुरा रखने के लिए हर रोज खुदाई करते थे। कंकर निकाले जाते थे, पानी छिड़का जाता था। कभी-कभी थोड़ा-सा तेल भी डाल दिया जाता था। खुदाई सुबह-शाम दोनों वक़्त होती थी। अखाड़े में उतरने और अभ्यास करने से पहले शागिर्द और पठ्ठे अपने गुरु या खलीफ़ा का आशीर्वाद लेने के लिए ‘बजरंग बली की जय’ या ‘इंशाअल्लाह’ कहा करते थे। हर अखाड़े का कुछ-न-कुछ खर्च होता ही था। यदि अखाड़ा किसी जमाअत या संस्था का है तो वह जमाअत या संस्था खर्च देती थी। दूसरे अखाड़ों का खर्च मुहल्ले या कूचे का कोई अमीर या दानी उठा लेता। अगर ऐसा कोई जरिया न होता तो पहलवान, शागिर्द और पठ्ठे आपस में ही चन्दा कर लेते। उस्तादी- शागिर्दी की पुरानी पक्की परंपरा थी। मुसलमान शागिर्द और पठ्ठा अपने खलीफा को दस्तार (पगड़ी पहनाते और कुछ नकदी भेंट करते। हिन्दू शागिर्द अपने गुरु को धोती, मिठाई और फल पेश करते ।

हिन्दू पहलवान, शागिर्द और पठ्ठे हनुमानजी को मानते और उसकी पूजा करते थे। अखाड़ों का दिल्ली के सामाजिक जीवन में एक सुखद पक्ष यह भी था कि वे मुहल्ले वालों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी लेते थे। अखाड़े क्या वे अपने आप में एक संस्था थे। रामलीला जुलूस निकलता या मुसलमानों का कोई जुलूस निकलता तो उस इलाके के पहलवान पूरी श्रद्धा के साथ उसमें शामिल होते और हर तरह की मदद देते थे।

समाज सुधारक अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने लिखा है कि अरब, तुर्क, ईरानी आदि कुश्ती की कला से अपरिचित थे। हिन्दुस्तान में यह कला आर्य वंश के लोग लाए। यद्यपि यह संकेत मिलता है कि यूनान और मिस्र में भी इसमें काफी उन्नति हुई थी। नील नदी के पास बैनी हसन के मकबरों और खंडहरों की दीवारों पर पहलवानों को कुश्तियों के बहुत-से दृश्य खुदे हुए मिलते हैं। हालांकि वे चित्र और उनकी रेखाएं अब धूमिल पड़ गए हैं लेकिन उन्हें देखने से यह पता लगता है कि जो पहलवान एक दूसरे से लड़ रहे हैं, उनके दांव-पेंच वैसे ही हैं जो हिन्दुस्तान में इस्तेमाल होते थे।

वही पकड़ और वैसे ही चारों खाने चित्त इन तस्वीरों में भी हैं। हिन्दुस्तान में कुश्ती की कला बहुत प्राचीन है। वेद-पुराणों में, रामायण, महाभारत में बहुत से शूरवीरों और योद्धाओं का उल्लेख मिलता है। उन दिनों कुश्ती और पहलवानी के हुनर को ‘मल्लयुद्ध’ के नाम से पुकारा जाता था। ईरान, अरब और तुर्की में यह कला हिन्दुस्तान से गई है। यों तो मुग़लों से पहले भी कुश्ती की कला को कई राजाओं का संरक्षण प्राप्त था लेकिन मुग़लों के काल में बादशाहों, अमीरों और जनता ने कुश्ती और पहलवानी में बहुत दिलचस्पी ली। बादशाह खुद दंगल देखने आते थे और जीतने वालों को इनाम देते थे। शेर अली तबरेज़ी, मुराद तुर्की, बलभद्र और बैजनाथ शाही पहलवान थे।

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