delhi ki holi

Holi 2024: दिल्ली में होली भाईचारे और प्रेम का उत्सव है। पुराने समय में होली खूब उल्लास के साथ मनाया जाता था। सुप्रसिद्व मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन हुए पद्मावत के रचियता मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार उस समय गांवों में इतना गुलाल उड़ता था (Holi 2024) कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे।

अमीर खुसरो ने होली (Holi 2024) को अपने सूफी अंदाज में कुछ ऐसे देखा है


दैय्या रे मोहे भिजोया री,

शाह निजाम के रंग में

कपड़े रंग के कुछ न होत है

या रंग में तन को डुबोया री।

वर्षा ऋतु के साथ Holi की तैयारी शुरू

मुगल दरबार में वर्षा ऋतु के शुरू होने के साथ ही होली की खुमारी (Holi 2024) शुरू हो जाती थी। जिसे जहांगीर ने ”आब-ए-पश्म“ और अब्दुल हमीद लाहोरी ने ”ईद-ए-गुलाबी“ कहा है, इसमें दरबारीगण एक दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते थे।

शाहजहांनाबाद बसने वाले मुगल सम्राट शाहजहां के दौर में होली खेलने (Holi 2024) का मुगलिया अंदाज बदल गया था और होली उल्लास (Holi 2024) से मनाई जाती थी। बांकीपुर पुस्तकालय में संगृहीत एक चित्र इस तथ्य की पुष्टि करता है। तब होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। मुगलकाल में होली के अवसर पर लाल किले के पिछवाड़े यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले (Holi 2024) लगते थे। 

 औरंगजेब ने लगाया प्रतिबंध
कट्टरपंथी औरंगजेब ने एक आदेश से दरबार में होली,दीपावली, बसन्त आदि त्यौहार मनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जबकि इसी मुगल बादशाह के समकालीन मशहूर शायर फायज देहलवी ने दिल्ली की होली को इन शब्दों में कहा है,

ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती हैं नारियां बिजली की सार


मुगल शैली के एक चित्र में औरंगजेब के सेनापति शाइस्ता खां को होली खेलते हुए दिखाया गया है। 
शायर मीर ने होली के नाम पर नज्मों की पूरी एक किताब ही लिखी है

“साकी नाम होली” में होली की मस्ती को देखा जा सकता है।

आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहां में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियां लाई

यमुना किनारे लगता था मेला
महेश्वर दयाल अपनी पुस्तक ”दिल्ली जो कि एक शहर है” में लिखते हैं कि दिल्ली के शाही किले होली का त्योहार (Holi 2024) ईद की तरह खूब धूम धाम से मनाया जाता था। लाल किले के पीछे यमुना किनारे मेला लगता था। शाहबाड़े से लेकर राजघाट तक खूब भीड़ लगी रहती थी।

दफ, झांझ और नफीरी बजती रहती थी। जगह-जगह नृत्यांगनाएं नृत्य करतीं थीं। स्वांग भरने वालों की मंडलियां किले के नीचे आतीं और तरह-तरह की नकलें और तमाशे दिखातीं। स्वांग भरने वाले बादशाह और शहजादों-शहजादियों और अमीरजादियां झरोखों में बैठकर तमाशा देखतीं। बादशाह इनाम देते। रात को किले में होली का जश्न मनाया जाता था। रात-रात भर गाना-बजाना होता था।

लगती थी कुफ्र कचहरी
शहर में अमीरों और रईसों की हवेलियों की ड्योढि़यों और छज्जों के नीचे लोगों की टोलियां इक्ट्ठी हो जातीं। ये ”कुफ्र कचहरियां“ कहलाती थीं। जो जिसके मुंह में आता बकता। अमीरों पर फब्तियां कसी जातीं। किसी के कहे का कोई बुरा न मानता। बीच-बीच में बोलते रहते-”आज हमारे होली है, होली है भाई होली है।“ इसी तरह दिल्लगी होती रहती और सारा दिन हंसी-खुशी में गुजर जाता। दुलहंडी के दिन बेगम जहांआरा के बाग (गांधी ग्राउंड) में धूमधाम से मेला लगता। क्या बड़े,क्या बच्चे सभी बढि़या, उजले कपड़े पहनकर जाते। चाटवालों,सौदेवालों और खिलौनेवालों की चांदी हो जाती।

(Holi 2024) होली के दिन तो यों भी गुल गपाड़े और रंगरेलियों में गुजर जाते लेकिन रात को जगह-जगह महफिल लगती। सेठ-साहूकार, अमीर गरीब सब चंदा जमा करते और दावतों, महफिलों और मशीनों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियों के आंगनों को या धर्मशालाओं के सहनों को खूब सजाया जाता। गलियों-मुहल्लों और चौकों में रंग खेलने से एक दिन पहले होली भी जलाई जाती थी। उसके लिए भी चंदा होता था मगर लड़के-वाले टोलियों में घूम-फिरकर और घर-घर जाकर पैसे, लकड़ी और उपले भी इकट्ठे करते थे। 

अमीरों संग होली खेलते थे बादशाह
‘सिराज-उल-अखबार’ के तीसवें खंड में भी होली के उत्सव (Holi 2024) का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार, बादशाह खुद भी हिंदू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वांग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुजरते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशर्फी इनाम के तौर पर मिलती थी। 

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दिल्ली में होली (Holi 2024) प्राचीन काल में हिंदू और मुसलमान मिलकर मनाते थे। मुगल बादशाह और मुस्लिम अमीर और नवाब भी होली के आयोजनों में पूरा हिस्सा लेते थे। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तो अपनी प्रजा के साथ बड़े शौक और जोश से होली खेलते थे। ”जफर“ की कही हुई ”होरियां“ बहुत चाव से गाई जातीं। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता थाः
क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी
देखो कुंवरजी दूंगी गारी
भाज सकूं मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात
ठारे अब देखूं मैं कौन जू दिन रात
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली (Holi 2024) पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। 18 वीं सदी में दो चित्रकारों निधा मल और चित्रामन ने जफर के पौत्र मोहम्मद शाह रंगीला के होली खेलते हुए चित्र बनाए थे। आज ये चित्र एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद हसन खत्री (मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री) अपनी एक अरबी पुस्तक “हफ्त तमाशा” में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़कर सभी भारतीय मुस्लिम होली खेलने (Holi 2024) लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली खेलना भी बंद कर दिया।

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