हाइलाइट्स

  • मुगलकाल में बच्चे अल्ला मियां पानी बरसा दाे गाना गाते थे
  • बारिश के बाद यमुना में तैराकी मेले का किया जाता था आयोजन
  • युवतियां भी घर की बुजुर्ग महिलाओं संग गाती थी गाना
  • अंग्रेजी सिपाही लोहे के पुल पर करते थेे बारिश का स्वागत, नृत्य आयोजन

आसमान में घुमड़ते काले-घने बादल मन के तार झंकृत कर देते हैं। बारिश की बूंदें तीन महीने से सूरज की तपिश में जलती धरा पर पड़ती हैं तो क्या पशु-क्या पक्षी सभी चहक उठते हैं। बूंदे धरती की प्यास बुझाती है, ठंडी हवा के झोंके शरीर को छूते हैं तो होंठो पर तराने छा जाते हैं। धरती पर गिरती बारिश की बूंदों और दिल्ली का दिल का नाता रहा है। दिल्लीवासियों के लिए बारिश में खुशियों की डफली है जिसे दिल ताउम्र बजाना चाहता है। बारिश में गलियों में दौड़ते बच्चे, घर की छत पर लोकगीत गाकर नाचती महिलाएं। चौपाल पर बैठे बड़े-बुजुर्गो की चाय संग चुस्कियां। महरौली का मेला, फूलवालों की सैर, यमुना में तैराकी भला कौन भूल सकता है।

फिजाओं में गूंजता लोकगीत

मानसून में धरती हरियाली की चादर ओढ़ लेती है। धरती की कोख से अंकुरित होते कपोल बच्चे-बड़ों को भाते हैं। लोकगीतों के माध्यम से बच्चे और बड़े कभी बारिश नहीं होने पर मेघों से गुजारिश करते थे तो वहीं बारिश के बाद लोकगीत ही खुशी की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनते थे। इतिहासकार कहते हैं कि बारिश, उमंग और उत्साह बढ़ा देती है। बच्चे कपड़े उतार गलियों में यह गीत गाते हुए दौड़ते थे।

काले भी डंडे

पीले भी डंडे

बरसेंगे, बरसाएंगे

आंधी रोग भगाएंगे।

जामा मस्जिद में बच्चों की टोली बेसब्री से बारिश का इंतजार करती थी। मुगलकालीन दिल्ली में बच्चे टोलियों में बैठकर गाना गाते थे।

आंधी गई रेत में

पानी गया खेत में

अल्ला मियां पानी बरसा दो।

बकौल इतिहासकार उस समय नल ज्यादा नहीं थे। तो ऐसे में बारिश में लोग मुल्तानी मिट्टी, साबुन लेकर चलते थे। चांदनी चौक के दुकानदार तो कई-कई दिनों बाद नहाते थे। वहीं प्रसिद्ध इतिहासकार पुष्पेश पंत कहते हैं कि बारिश की पहली बौछार का बेसब्री से इंतजार करते लोग आसमान में काले घने बादलों के मंडराते ही हुलसने लगते थे। तपती धरती को भी राहत मिलती थी नन्हीं नन्हीं बूंदों से। मौसम बदलने के साथ त्यौहार का माहौल बन जाता था-खुद ब खुद। बाद के समय में बारिश होते ही इंडिया गेट के पास वाले घास के मैदानों में नंगे धड़ बच्चे धमाचौकड़ी मचाते नजर आने लगते थे। कुछ जांबाज तैराकों के तेवर दिखलाते हौजनुमा उथले तालाबों में नहाने का लुत्फ लेते तो उनके कुछ साथी जामुन के पेड़ों के नीचे बिछी चादरों से रसीली फल लूटने की ज्यादातर कामयाब हरकतें करते इस मिल्कियत के ठेकेदार रखवालों के साथ चोर सिपाही वाला खेल खेलते दिन बिता देते थे।

तैराकी मेले में युवा दिखाते थे दमखम

बारिश के बाद जब यमुना की लहरें अठखेलियां करती थी तो तैराकी मेले के जरिए युवा अपना दमखम दिखाने को तैयार हो जाते थे। इसकी तैयारी एक महीने पहले से शुरू कर दी जाती थी। अलग अलग समूह में युवा यमुना किनारे पहुंचते थे। हर समूह का मुखिया खलीफा होता था। समूह के झंडे अलग होते थे। प्रत्येक समूह ढोल नगाड़ों संग घाट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता था। यमुना में तैरते समय कोई हादसा ना हो इसके लिए प्रत्येक तैराक के सीने और पीठ पर विशेष लकड़ी बांधी जाती थी। ढोल बजते ही तैराकी शुरू हो जाती थी। घर की महिलाएं अपने बच्चों से कहती थी कि जाओ देखो ढोल बजा या नहीं? यदि ढोल नहीं बजने का अर्थ किसी तैराक का यमुना में डूबना होता था। तैराकी मेले के प्रति क्रेज का आलम यह था कि जहांगीर भी इसमें शामिल हुए थे। जहांगीर यमुना में तैरने के लिए उतरते तो उनके साथ छह अन्य तैराक होते थे। एक नाव आगे चलती थी जिससे गुलाब जल प्रवाहित किया जाता था। सैकड़ों टन गुलाब जल यमुना में प्रवाहित किया जाता था। जब तैराक मेले से वापस लौटते थे तो घर की मुस्लिम महिलाएं दरगाह जबकि हिंदू महिलाएं मंदिर में विशेष प्रार्थना करती थीं। बकौल आरवी स्मिथ मास्टर कमरूद्दीन अपनी तैराकी की वजह से प्रसिद्ध थे। आगरा निवासी कमरूद्दीन, आगरा से दिल्ली तक का सफर तैरते हुए तय करते थे। इनसे मिलने के लिए पानी में जाना पड़ता था। कई दफा लोग किनारे पर खड़े होकर इनके गुजरने का इंतजार करते थे।

महरौली मेले की अनूठी छटा

वर्षा ऋतु का इंतजार उस समय तैराकी मेले के साथ-साथा महरौली मेले के लिए भी किया जाता था। महरौली में एक महीने तक मेला लगता था। आरवी स्मिथ कहते हैं कि अकबर के शासन में वर्षा ऋतु में फतेहपुर सीकरी में मेले लगते थे। ठीक इसी तरह शाहजहां के समय महरौली में एक महीने तक मेला लगता था। दुकानदार पूरे साल इस मेले का इंतजार करते थे। खाने समेत घर के जरूरी सामान की खरीदारी के लिए महिलाएं पोटली में खाना बांध परिवार के सदस्यों संग जाती थी। यह दृश्य काफी मनोरम होता था। महिलाओं की अलग अलग टोली गाना गाते हुए जाती थी और खरीदारी करने के बाद एक से दो दिन बाद लौटती थी। कई परिवार तो तंबू भी ले जाते थे ताकि कुछ दिन गुजार सके। पुष्पेश पंत कहते हैं कि वर्षा ऋतु के स्वागत में ही राजधानी में पारंपरिक सांप्रदायिक सद्भाव की अनोखी मिसाल पेश करते फूल वालों की सैर का आयोजन होता था।

घर की बुजुर्ग महिलाओं संग गाती थी गाना

बारिश रिश्तों को मधुर भी बनाता था। आरवी स्मिथ कहते हैं कि मुगलकाल में बारिश का बेसब्री से इंतजार किया जाता था। कारण, तब बिजली, पंखे, कूलर तो थे नहीं। हाथ से पंखे झेलते हुए दिन और रात गुजरते थे। खासकर, महिलाएं रातों में बच्चों को पंखे झेलती थी। बारिश में महिलाएं, बुजुर्ग महिलाओं संग द्वार पर बैठकर गाना गाती थी। लोकगीतों में बारिश का आनंद इस कदर पिरोया जाता था कि आसपास से गुजरते लोगों का ध्यान खींच लेती थी। हरियाली तीज को लेकर अभी से तैयारियां शुरू हो जाती थी। बागों में झूले लगाने की योजनाएं बनने लगती थी। पुष्पेश पंत कहते हैं कि कजरी, सावन, झूला गुनगुनाने शुरू हो जाते थे और शास्त्रीय संगीत के गुणी पारखी रसिक मेघ मल्हार या मियां की मल्हार की पुरानी बंदिशें -उमड़ घुमड़ घन गरजन लागे!- याद करते थे। अब याद नहीं रहा कि कब किसने ‘गिल’ नामक इत्र से हमारा परिचय कराया था जिसमें बारिश से गीली मिट्टी की सुगंध रची बसी रहती है।

अंग्रेजों के स्वागत का अनोखा अंदाज

अंग्रेज बारिश का अनोखे अंदाज मंे लुत्फ उठाते थे। बारिश होते ही लोहे के पुल पर ब्रिटिश कमिश्नर आते थे। उनके साथ सैकड़ों की संख्या में अंग्रेज सिपाही होते थे। यहां वो यमुना के मनोरम दृश्य संग बारिश का आनंद उठाते थे। नृत्यांगनाओं को विशेष रूप से बुलाया जाता था।

बिन खाने अधूरी बरसात

पुष्पेश पंत कहते हैं कि पहले बारिश में जी भर कर भीगने के बाद बारी आती थी-गरमागरम पकौडे़, कड़क मीठी चाय के साथ बिना किसी परहेज के थोक के भाव निबटाने की! ज्यादातर तला भुना माल -पूड़ी, मट्ठी वगैरह-घर पर ही तैयार किया जाता था। चटपटा स्वाद भी सावन भादों की नेमत समझा जाता था। इस मौसम में बाहर (खोमचे-रेडी पर बिकने वाला) का खाना बीमारीको न्यौता देने वाला समझा जाता था। जबकि मुगल काल में बारिश में घुमकर जामुन खाने और घर में बने खानों का आनंद लेते थे।

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