-पुरानी दिल्ली Old Delhi आज भी मौजूद है कटरा

आड़ी तिरछी गलियां, पीले प्रकाश से रोशन, गलियों के दोनों तरफ खुली दुकानें जो रोशन है पीली, सफेद रोशनी से। आते जाते लोगों का रेला जो कभी कंधे टकराने तो कभी पांव एक दूसरे से छू जाने पर देखते हैं एवं फिर चंद सेकेंड की बेतरतीब सी खामोशी चेहरे पर मुस्कान के साथ विदा ले लेती है। कदम खुद ब खुद चल पड़ते हैं पुरानी दिल्ली की गलियों में शान से खड़ी स्मारकों, ऐतिहासिक इमारतों एवं जिंदगी संग कदमताल मिलाकर चलती गलियों, कूचों एवं कटरों की तरफ। जिन्होंने सालों पुरानी रिवायतों को जिंदा रखा है। बातचीत का लहजा, एक दूसरे से मिलने का खुशमिजाजी अंदाज एवं दुख दर्द साझा करने का चलन इन्हें आज भी जिंदा रखा है तभी हर दिन सैकड़ों की संख्या में देशी विदेशी पर्यटक इन कूचे, कटरों में जिंदगी का फलसफा ढूंढते हैं। यहां जिंदगी के हर रंग नजर आते हैं। गलियों, कूचों की तरह कटरों ने पुरानी दिल्ली की रंगत बचाए रखी है। कभी हवेली का हिस्सा रही ये हवेलियां आज बाजार में भले ही तब्दील हो गई है लेकिन आज भी इनमें पुरानी दिल्ली की गंगा जमुनी तहजीब धड़कती है। इन कटरों में आजादी के दीवानों ने ब्रितानिया हुकूमत से लोहा भी लिया।

इतिहासकार कहते हैं कि कटरा दरअसल कुछ मकानों एवं दुकानों का समूह होता है। यह हवेलियों का ही हिस्सा होता है। पहले हवेलियां बहुत बड़ी होती थी, वर्तमान में यही हवेलियां धीरे धीरे कटरे में तब्दील होती चली गई। यहां लेन और सर्विस लेन भी एक हवेली से दूसरी हवेली जाने के लिए बने थे। जो बाद में हवेलियों में थोड़ी बहुत बदलाव के साथ रास्तों में तब्दील होते चले गए।

कटरा नील

कटरा नील स्थानीय निवासी राहुल कहते हैं कि यहां कटरे के नाम को लेकर कई कहानियां प्रचलित है। प्रमुख यह है कि जब शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की तो सिर्फ शाही महल के पदाधिकारी, सेना के जवान ही नहीं आए बल्कि उनके साथ समाज के विभिन्न वर्गो के लोगों ने भी शाहजहांनाबाद को अपना आशियाना बनाया। बनिया समाज के लोग बड़ी संख्या में यहां आए और कटरा नील में बसे। इसका नाम भी उनके आराध्य नील कंठ महादेव के नाम पर ही रखा गया है। यह पहले भी कारोबारी हब रहा। वर्तमान में कटरा नील कपड़े के होलसेल मार्केट के रूप में जाना जाता है। यहां दुकानों की बनावट, नक्काशी मुगल एरा की ही बनी हुई है। दिल्ली में रेमंड की पहली फ्रेंचाइजी भी इसी कटरे में खुली थी। आज यह लहंगा, चुन्नी, सलवार, सूट की खरीदारी के लिए जाना जाता है। यहां काली मां का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। लेकिन बाजार से इतर इसकी एक पहचान आजादी के मतवालों की वीरता भरी कहानियों से भी है। 9 अगस्त सन 1942 के दिन कटरा नील के बाहर एक प्रदर्शन आयोजित हुआ। जिसकी अगुवाई नानक चंद मिश्र एवं इनके सहयोगी कर रहे थे। ब्रितानिया हुकूमत ने गोली के दम पर विरोध प्रदर्शन को दबाने की कोशिश की। नानक चंद को गोली लग गई। आजादी के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्गीय नानक चंद मिश्र को मरणोपरांत स्वतंत्रता संग्राम में योगदान के लिए ताम्रपत्र से सम्मानित भी किया।

कटरा अशर्फी

इसके नाम के संदर्भ में कई कहानियां प्रचलित है। मसलन, बाजार में ही कुछ दुकानदारों ने बताया कि इसका नाम 18वीं सदी के नवाब की एक बेगम पर रखा गया है। यही नहीं बेगम के नाम पर एक मस्जिद भी यहीं बनवाई गई है। जबकि दूसरी कहानी नाम आधारित है। कई दुकानदारों का कहना है कि कटरा अशर्फी दरअसल अशरफियों के बेचने की वजह से नाम पड़ा।

कटरा चौबान

आरवी स्मिथ कहते हैं कि पहले इसे कटरा चौबदार बुलाया जाता था। ये नाम शाहजहां के सिक्योरिटी गार्ड की वजह से पड़ा था जो यहीं कटरे में ही रहते थे। बाद में यहां कारोबारी गतिविधियां बढ़ी और नाखून (चोबस) वालांे की अधिकता हो गई। फिर स्वाभाविक था कि बोलचाल में नाम भी बदलता चला गया और इस तरह कटरा चौबान अस्तित्व में आया। यहां हाडर्डवेयर की कई और दुकानें भी है। इसी तरह कटरा नबाव, निजाम के नाम पर पड़ा है।

कटरा निजाम उल-मुल्क

यह जामा मस्जिद के पास स्थित है। पास ही चिकन मार्केट है। यहां एक मस्जिद भी है, जिसे मछली वालों की मस्जिद कहकर भी पुकारा जाता है। कटरा निजाम उल मुल्क इसी मस्जिद के पीछे हैं। स्थानीय दुकानदार अकरम कहते हैं कि कटरे का नाम हैदराबाद निजाम के परिवार के लोगों के यहां रहने के कारण पड़ा। कटरे को मुंशी जहूर-उल-हसन (कौमी प्रेस) नाम से भी पुकारा जाता है। कौमी प्रेस नाम के पीछे की कहानी यह है कि यहां धार्मिक किताबें छपती थी। जिस बिल्डिंग में कभी किताबें छपती थी वो बिल्डिंग प्रिंटिंग प्रेस के उर्दू बाजार शिफ्ट होने के बाद अब गेस्ट हाउस में तब्दील हो चुकी है। आजादी के बाद ये कटरा मछली मार्केट में तब्दील हो गया।

कटरा मल्लाह

नाम के अनुरूप ही इस कटरे में कभी मल्लाह रहते थे। इन मल्लाहों के कंधे पर ही मुगल बादशाहों को नदी पार कराने की जिम्मेदारी थी। लिहाजा, कटरा ही मल्लाह के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यह लाल किले के भी बहुत पास है। इस कटरे से गुजरते हुए आज भी मुगल काल की भव्यता का एहसास होता है। इमारतों की डिजाइन, खिड़कियां, संकरी गलियां पुराने दिनों की यादें ताजा कर देती है। आजादी के दरम्यान सन 1947 में यहां बड़े पैमाने पर लोगों का स्थानांतरण हुआ। यहां लोगों ने खुले दिल से शरणार्थियों का स्वागत किया था। स्थानीय निवासी बताते हैं कि पहले यहां एक मियां साहब होते थे जो कटरे के प्रमुख थे। आज भी उन्हीं के सबसे ज्यादा कटरे यहां है।

नटों का कटरा

रोड साइड जिमनास्टों के लिए कभी यह शब्द प्रयोग किया जाता था। चांदनी चौक में श्रीवालान के पीछे स्थित इस कटरे में मुगलिया दौर में जिमनास्ट रहते थे। यहां एक बड़ी दिलचस्प कहानी चर्चित है। कहते हैं एक बार एक नट का भूत इलाके में खूब सक्रिय था। वह लोगों को तो नुकसान नहीं पहुंचाता था लेकिन फलों के पत्ते खा जाता था। कई फल के पत्ते तो बचते भी नहीं थे। यह भी संयोग है कि रस्किन बांड ने एक युवा ब्राम्हण लड़के की कहानी लिखी है जो पीपल के पत्ते खाता है।

कटरा गौरी शंकर

चांदनी चौक में प्रसिद्ध गौरी शंकर मंदिर के नाम पर इस कटरे का नाम पड़ा है। इस मंदिर को मराठा शासक अप्पन ने बनवाया था। ऐसी कहानी जनसामान्य में प्रचलित है कि एक बार शासक के सपने में एक लड़की ने दर्शन दिया। उसके पास शिवलिंग था। उसने कहा कि यदि जिंदगी एवं मरने के बाद वो शांति चाहता है तो एक मंदिर बनवाना चाहिए। मंदिर में स्थापित शिवलिंग 800 साल पुराना माना जाता है। कटरा सुभाष भी स्थानीय लोग सुभाष चंद्र बोस के कभी यहां आने की वजह से नामकरण बताते हैं। जबकि कईयों ने अनभिज्ञता भी जताई।

ये कटरे में प्रसिद्ध

-कटरा सुभाष

-कटरा लेहस्वान

-कटरा सत्यनारायण

-कटरा प्यारेलाल

-कटरा लच्छू सिंह

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