दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है..जहां दिल्ली का दिल धड़कता है। गलियां, जिसमें गंगा जमुनी तहजीब की सैकड़ों मिसालें मिलती है। कूचों, कटरों की विस्तृत श्रृंखला, जो पुरानी दिल्ली के समृद्ध इतिहास को किस्से कहानियों में पिरों कर चहेतों के सामने रखती है। ये कहानियां, जो भरी पड़ी है रिश्तों एवं दोस्ती की गर्माहट से। त्याग बलिदान एवं वीर गाथाओं से। पुरानी दिल्ली के गलियों से शुरू हुआ सबरंग का सफर अब कूचों तक पहुंच चुका है। कूचा, जो प्रसिद्ध शख्सियतों या कारोबार के नाम पर रखे जाते थे। दिल्ली ने गुजरते हर लम्हे के साथ वक्त का अलग रुप ही देखा। लेकिन यह पुरानी दिल्ली ही है जहां वक्त मानों आज भी ठहरा हुआ है। कूचों के किनारे पर, या फिर किसी दुकान के सामने प्याउ के बहाने ही सही, बोलचाल से लेकर रहन सहन ने मानों वक्त को अपना हमसफर बना दिया है। तभी तो दिल्ली सिर्फ दिल्लीवालों की ही पसंद नहीं बल्कि विदेशी पर्यटक भी इसे अपना दिल दे बैठता है।
इतिहासकार बताते हैं कि पुरानी दिल्ली में कूचा, कटरा, गलियों की नींव मुगल काल में पड़ी। इन कूचों, कटरों के नाम के पीछे एक स्थानीय ऐतिहासिक कहानी छिपी है जो आज भी लोगों में प्रचलित है। शाहजहां ने जब अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित की तो लाल किला, चांदनी चौक, जामा मस्जिद जैसे इलाके बनाने के साथ ही यहां गलियों, कूचों एवं कटरों की भी परंपरा शुरू की जो आज भी बदस्तूर जारी है। कूचे आमतौर पर संकरे होते हैं। कुछ कूचे तो कवर्ड भी होते थे। बकौल स्मिथ इन अधिकतर कूचों में अमीर लोग रहते थे जिनके नाम पर ही कूचा जाना जाने लगा। हालांकि कई अन्य इतिहासकारों की मानें तो कूचा एक कार्नर, चौराहा या एक मीटिंग प्लेस भी कह सकते हैं, जिसका गंतव्य कटरा होता था। एक कटरे में कई कूचा भी हो सकते हैं। एक कूचा में कई दुकानें हो सकती हैं। आज भी पुरानी दिल्ली के अधिकतर कूचा बाजार है।
कूचा घासी राम
कूचा घासीराम की चौखट पर पहुंचते ही पुरानी दिल्ली की गलियों से गुजरती ठंडी हवाएं छूती है। एक पुराना प्रवेश द्वार, बिजली के तारों से लिपटा हुआ। प्रवेश द्वार पर चारो तरफ पोस्टरों का मकड़जाल एवं दोनों तरफ दीवार को छूकर खड़ी दुकानें। अंदर, लाइटों की चकाचौंध में रोशन होती दुकानें। कूचा घासीराम के नाम के पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। कूचा घासीराम का लैंडमार्क भवानी शंकर नमक हराम की हवेली है। घासीराम दरअसल एक एस्ट्रोलॉजर थे। कहा जाता है कि ये मुगल बादशाह के विश्वासपात्र सलाहकार थे। इनसे पूछकर ही बादशाह शहर के अंदर या फिर शहर के बाहर दौरे पर जाते थे।
कूचा महाजनी
लाल किला चौक से चांदनी चौक मुख्य मार्ग पर जाते समय कूचा महाजनी बायीं तरफ दिखता है। कटरा नटवा के ठीक पास स्थित महाजनी अन्य कूचों की अपेक्षा थोड़ा खुला नजर आता है। त्योहारी सीजन में हालांकि जबरदस्त भीड़ उमड़ती है। यहां सोने, चांदी के आभूषणों की दुकानें है। ऐसा कहा जाता है कि यह कूचा दरअसल एक हवेली का हिस्सा हैं। दूर से देखने में आज भी यह किसी हवेली का हिस्सा सा ही दिखता है। स्थानीय दुकानदार बताते हैं कि मुगल काल में महल में आभूषण देने वाले सेठ, महाजनों की यहीं दुकान एवं रिहायश थी। लिहाजा, इसका नाम ही कूचा महाजनी पड़ गया।
कूचा बृजनाथ
स्थानीय दुकानदार अनिल कहते हैं कि ऐसा कहा जाता है कि बृजनाथ भी मुगल दरबार में एस्ट्रोलाजर थे। जो मुगल बादशाहों के बेहद खास थे। इस कूचा का पुरानी दिल्ली के शिक्षा व्यवस्था में भी बहुत योगदान है। सन 1919 एवं इसके पहले भी पुरानी दिल्ली में सनातन धर्म सभा का प्रभुत्व था। यह दिल्ली के कई विद्यालयों को आर्थिक सहायता भी देती थी। इनमें से एक को तो हाईस्कूल का स्टेटस मिला। विश्व युद्ध के दौरान हिंदू कालेज आर्थिक विषमता से गुजर रहा था लेकिन सनातन धर्म सभा ने काफी मदद की। इन सभी का केंद्र कूचा बृजनाथ ही था।
कूचा उस्ताद दाग
फतेहपुर मस्जिद की तरफ जाने वाले मार्ग पर टाउन हाल के पास कूचा उस्ताद दाग स्थि्थत है। यह कूचा वर्तमान में कपड़े की होल सेल दुकानों का हब बन चुका है। बाकि अन्य कूचा के मुकाबले यह अपेक्षाकृत छोटा है। विगत सालों में यहां स्थित पुरानी हवेलियों में दुकानें खुल चुकी है। खैर, दुकानदार फैज कहते हैं कि इस कूचा का नाम एक प्रसिद्ध उर्दू शायर के नाम पर रखा गया है। जिनका नाम उत्साद दाग था। इनकी विधवा मां लाल किले में रहती थी लेकिन उस्ताद कूचा में ही रहते थे। इनके नाम पर ही इसे लोग उस्ताद दाग कूचा कहने लगे। इनके पास लोग दूर दूर से उर्दू की शायरी लिखकर ले आते एवं करेक्शन करवाते थे। इनकी मौत के बाद बेंजामिन मोरे ने लिखा–एक दाग था, सो वो भी तो मुजतर गुजर गया। अब बचा क्या हिंदुस्तान में।
कूचा रहमान
लाल कुआं के पास स्थित यह कूचा अनूठा है। यह रहमान का कूचा नाम से भी प्रसिद्ध है। यहीं मस्जिद अनार वाली भी है। स्थानीय दुकानदार अनवर बताते हैं कि कूचा रहमान नाम क्यों पड़ा इसके पीछे कई कहानियां प्रचलित है। कुछ लोगों का कहना है कि यह रहमान नहीं दरअसल राजा रामरायमल एवं उनके नाम पर हुए एक भ्रष्टाचार की वजह से विवादित रही। कश्मीरी गेट स्थित दिल्ली के 181 साल पुराने सेंट जेम्स चर्च के बनने की कहानी भी यहीं से शुरू हुई थी। दरअसल, स्किनर कश्मीरी गेट में शिफ्ट होने से पहले यहीं इसी कूचे में रहता था। दिल्ली में बसने के बाद 1811 में उसने अपना एक महान कूचा रहमान में बनाया था।
कूचा चेलान
इसका वास्तविक नाम दरअसल चेलन अमीरन है। मुगल काल में यहां उच्च वर्ग के लोग रहते थे। पाकिस्तान का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाले अखबार डान की स्थापना यहीं मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी। नाम के पीछे एक अन्य कहानी भी यहां प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि यहां कभी एक हवेली थी, जिसमें 40 बड़े कमरे में अमीर लोग रहते थे। इन सबको यमुना के किनारे अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया था। यही नहीं 1857 की क्रांति के दमन के दौरान अंग्रेजों ने 1400 से ज्यादा निहत्थे लोगों की हत्या कर दी थी।
कूचा फौलाद खान
स्थानीय लोग इसे फौलाद का कूचा नाम से पुकारते हैं। फौलाद कौन थे और इनके नाम पर क्यों कूचा पुकारा जाता है इसके पीछे भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। दरअसल, फौलाद खान, हबश खान के बेटे थे। जिनके नाम पर हबश खान फाटक बहुत ही प्रसिद्ध है। फौलाद खान का एक भाई शाहजहां के दरबार में काफी सम्मानित पोस्ट पर था और बाद में आगे चलकर वो दिल्ली के कोतवाल भी नियुक्त हुए। यह पूरा एरिया दरअसल फौलाद खान की हवेली का हिस्सा था। इसलिए इसे फौलाद खान कूचा कहकर बुलाया जाता है।
कूचा दिवाली सिंह
चांदनी चौक में कूचा दिवाली स्थित है। कहते हैं दिवाली सिंह बहादुर शाह जफर प्रथम के वजीर एवं खास दोस्त भी थे। ऐसी भी कहानियां प्रचलित है कि जब भी वो शहर में आते तो अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए एक तीर छोड़ते जो किले की दीवार में धंस जाती। इससे बादशाह को पता चलता कि अमुक दिन दिवाली सिंह शहर आए हैं।