दिल्ली में आमतौर पर नाटक रात को दस बजे शुरू होते थे। एडवांस बुकिंग का रिवाज नहीं था। हर दर्जे के टिकट शो शुरू होने से एक-डेढ़ घंटा पहले खिड़की पर बिकने शुरू हो जाते थे। अगर हाजिरी कम होती तो नाटक देर से शुरू करते थे ताकि कुछ और टिकट बिक जाएं। लेकिन समय हो जाता तो बैठे हुए लोग बेताब हो जाते और मुंह में उंगलियों डालकर तेज सीटियां बजाते और गुल-गपाड़ा करते नाटक कई घंटों का होता था और उन दिनों उसकी लंबाई भी खूबी समझी जाती थी। अक्सर नाटक सुबह के तीन-साढ़े तीन बजे तक चलते थे। हर तमाशे के शुरू में मंगलाचारण होता था जो परदा उठते ही शुरू हो जाता था। इसमें आमतौर पर सभी अभिनेता शरीक होते थे।
नाटकों की भाषा सामान्यतः उर्दू या हिन्दी या दोनों का मिश्रित रूप हिन्दुस्तानी होती थी। नाटकों के विषय और उनकी विविधता असीम होती थी जिनके बारे में एक अनुमान उनकी बहुत बड़ी संख्या से किया जा सकता है। मंच के लिए लिखे हुए नाटकों की संख्या केवल उर्दू या हिन्दुस्तानी में ही कई हज़ार थी और मानवीय गतिविधि का शायद ही कोई पहलू हो जो नाटक की पकड़ से बचा हो।
धार्मिक विश्वास, परंपरागत कथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं, राजाओं और बादशाहों का जीवन, युद्ध, भ्रमण पर्यटन, सौंदर्य और प्रेम, अत्याचर उत्पीड़न, दया और दानशीलता, जिन्नों, परियों और अन्य कौतूहलपूर्ण तिलिस्माती क़िस्से अर्थात् कोई भी विषय ऐसा नहीं था जिस पर उर्दू में नाटक न लिखे गए हों। निःसन्देह इन सब नाटकों की आधारशिला अमानत के ‘इंदर सभा’ से ही रखी गई। इनके अलावा अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपीय भाषाओं के कई नाटकों में जिनमें शेक्सपियर के नाटक भी शामिल हैं, अनुवाद भी मंच पर प्रस्तुत किए गए थे।
‘बिलवा मंगल’ दिल्ली में कई सप्ताह चला। यह उन दिनों का बड़ा लोकप्रिय तमाशा था जिसे देखने के लिए स्त्रियां भी भारी संख्या में जाती थीं। उसी दौर में दिल्ली में खेले जाने वाले अन्य लोकप्रिय नाटक थे- ‘मीठी छुरी उर्फ दुरंगी दुनिया’, ‘ख़ून-ए-नाहक’, ‘खूबसूरत बला’, ‘तुर्की हूर’, ‘आंख का नशा’, ‘सैद-ए-हवस’, ‘सिलवर किंग’, ‘कृष्ण-सुदामा’, ‘गोरख धंधा’, ‘राजा हरिश्चंद्र’, ‘गोपीचंद’, ‘नरसी भगत’ जब मेरठ की ‘भारत व्याकुल कंपनी’ अपने लोकप्रिय नाटक ‘भगवान बुद्ध’ की सफलता के स्वर्णिम शुभारंभ के बावजूद बंद हो गई तो दिल्ली के थियेटर-प्रेमियों को बड़ा आघात पहुंचा, क्योंकि मेरठ की कंपनियां अपने तमाशे दिल्ली में दिखाती थीं।