एक समय संदेश भेजने के लिए सबसे विश्वसनीय समझे जाते थे कबूतर

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

इंसान ने कबूतर को हमेशा दो मकसदों से पाला है। एक तो अपना शौक पूरा करने के लिए और दूसरे उसे कुछ मुफीद काम लेने के लिए। इसके लिए उसकी नस्ल और किस्म में कई चीजें बढ़ाई गई हैं और नई किस्मों के नाम उनकी खूबियों और अपने शौक के आधार पर रख दिए। संदेश पहुंचाने में इन कबूतरों को हरकारों से भी अधिक विश्वसनीय समझा जाता था कबूतरों ने युद्ध और शान्ति में भी इन्सान का साथ दिया। प्रेमी और प्रेमिका के दिलों को जोड़ने में भी कबूतरों की प्रमुख भूमिका रही है। अब जमाने भर में कबूतर को शान्ति का चिह्न समझा जाता है और कई उत्सवों और खेलों की अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कबूतर उड़ाना एक शुभ लक्षण माना जाता है।

कबूतरों को पालने का सर्वप्रथम रिकार्ड मिस्र में हजरत ईसा के जन्म से तीन हजार वर्ष पहले मिलता है। 1154 ई. में वहां के सुल्तान ने पहली कबूतर चौकी कायम की थी। मगर उस वक्त की कायम की हुई ऐसी चौकियों को 1258 ई. में मंगोलों ने अपने बग़दाद के हमले में तहस-नहस कर दिया। 1848 ई. में फ्रांसीसी क्रांति में कबूतरों को संदेशवाहक पक्षियों के रूप में भारी संख्या में इस्तेमाल किया गया। 1818 ई. में कबूतरों की पहली लंबी उड़ान प्रतियोगिता के रूप में, उसी देश में, कराई गई। उसके बाद 1820 ई. में पेरिस से लीज तक और 1832 ई. में लंदन से ब्रुसेल्स तक कबूतरों की उड़ान प्रतियोगिता कराई गई। ऐसे खेल ब्रिटेन, अमरीका और फ्रांस में हमेशा लोकप्रिय रहे। बेल्जियम में तो आज भी हर गांव और शहर में कबूतर पालने वालों के क्लब और संस्थाएं स्थापित हैं। दरअसल बेल्जियम को खेल के रूप में कबूतरों की उड़ाने के लिए ‘घर’ समझना अनुचित न होगा।

ब्रिटेन और दूसरे बहुत से पश्चिमी देशों में कबूतर की आज भी बहुत अहमियत है और उनसे कई लाभप्रद काम लिए जाते हैं। समुद्री बेड़ों की सुरक्षा के लिए और खतरे की स्थिति में सावधान करने के लिए कबूतरों को सधाया जाता है। बेल्जियम के अलावा ब्रिटेन में भी कबूतर पालने, उन्हें सधाने और उनकी उड़ाने खेल के तौर पर कराने वाले कई संगठन और क्लब हैं और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। दरअसल सभी पश्चिमी देशों में कबूतर पालने, उन्हें सचाने और उनकी उड़ाने खेल के तौर पर कराने वाले कई संगठन और क्लब हैं और उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। दरअसल सभी पश्चिमी देशों में कबूतर पसंद किए जाते हैं और शहरों में चौराहों, चीकों और फव्वारों पर सैकड़ों कबूतर बैठे दिखाई देते हैं और बड़े और बच्चे उन्हें देखकर बहुत ख़ुश होते हैं। यूरोप और एशिया के बड़े-बड़े युद्धों में कबूतरों ने जंगल, पहाड़ और नदियां पार करके खुफिया ख़बरें दूर-दूर तक पहुंचाई और लौट आए। क्या मजाल कि किसी गलत जगह पर पहुंचकर उतर जाएं और खबर दुश्मनों के हाथ लग जाए और कबूतर कैसे और कहां उड़ाए जाते थे किसी को कानों कान भी पता नहीं होता था। असलियत तो यह है कि संदेश पहुंचाने में जो अहम काम युद्धों में कबूतरों ने किया, वह इन्सानों के बस की बात भी नहीं थी, क्योंकि आदमियों को पकड़े जाने, ग़लत जगह पर पहुंचने और खरीदे जाने का सख्त खतरा होता था।

जहां तक वर्तमान दिल्ली का संबंध है, वह पहला-सा जोश-खरोश अब नहीं रहा। चांदनी चौक में टाउन हाल की इमारत और घंटाघर, जो अब नहीं है, हमेशा जंगली कबूतरों का घर रहे हैं। आज भी बाहर बेशुमार कबूतर हर वक्त गुटर-गूं करते रहते हैं। सड़क से मिली हुई पटरी पर दो-तीन व्यापारी दाने की बोरियों और लोहे की रकाबियां लिए बैठे रहते हैं और राहगीर उनसे दानें ख़रीद कर पीछे बैठे हुए कबूतरों के झुंड को डालते रहते हैं, यहां तक कि पर्श पर दानों की मोटी चादर बिछ जाती है। लेकिन इसके पीछे मज़हब और रहमदिली की भावनाएं छिपी हैं न कि कबूतर उड़ाने का शौक कबूतरबाजी की दिल्ली में वह आन-बान अब कहां? सच तो यह है कि है वे जमाने अब लद गए।

कोई-कोई छोटा-मोटा आदमी कबूतर पाले हुए हैं। छतों पर कबूतरों की छतरियाँ पुरानी दिल्ली के गुंजान इलाक़ों में कहीं-कहीं नज़र आती हैं। बड़े और अमीर घरों में तो यह शौक़ ख़त्म हो ही गया है। आज आप किसी से कबूतरबाजी का जिक्र करेंगे तो वह नाक-भी चढ़ाएगा और मजाक उड़ाएगा कि यह तो बेकार और निकम्मे आदमियों का शौक़ है। मगर दिल्ली के किसी बड़े-बूढ़े से इसका जिक्र करेंगे तो वह आह भर कर आसमान की तरफ़ देखेगा और उसका दिमाग़ कबूतरों से भरे हुए आसमान की कल्पना करने लगेगा जो दिल्ली के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का एक अविस्मरणीय अंग था।

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