दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

दिल्ली के एक मशहूर कबूतरबाज मिर्जा फखरु यानी मिर्जा चपाती थे। उनको कबूतरबाजी में पतंगबाजी की तरह कमाल हासिल था। मिर्ज़ा ने एक ठेले पर कबूतरों की काबुक और उसके ऊपर उनकी छतरी बना रखी थी। मिर्जा फखरु के बारे में मशहूर था कि जो काम करेंगे निराला करेंगे। अपने कबूतरों से भरे ठेले को लुढ़का कर बाजारों और कुचों में से जाते और वहीं से कबूतर उड़ाना शुरू कर देते। मिर्जा चपाती का संबंध शाही खानदान से तो था ही इस वजह से भी और अपनी तरह-तरह की खूबियों की वजह से भी अवाम में बड़े लोकप्रिय थे और जहां जाते लोग उनके गिर्द इकट्ठे हो जाते। मिर्जा वहीं घुमेरी उड़ान कराते और फिर तावा दे देते। उनके सारे कबूतर अपना निवास पहचानते थे और एक चक्कर लगाकर लौट आते। मिर्जा चपाती छीपी साथ रखते थे और उसको बुला-बुलाकर कबूतरों को इशारे देते रहते थे। उनकी कबूतरबाजी में महारत का यह हाल था कि हवा में एक लोटे में पानी भरकर ऐसे छींटे उड़ाते कि उड़ते हुए कबूतरों को छींटों पर दानों का शुबहा होता और वे धोखा खाकर नीचे उतर आते।

दिल्ली को समय-समय पर नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली, जाटों और मराठों के हमलों ने इतना तहस-नहस किया कि यहां के बहुत से कारीगर और कबूतरबाज लखनऊ और हैदराबाद चले गए। अवध के बादशाह नवाब वाजिदअली शाह ने दिल्ली के कबूतरबाजों की बड़ी आवभगत की। जब वाजिदअली शाह को गद्दी से उतार कर अंग्रेज़ों ने कलकत्ता भेज दिया तो वहां मटिया बुर्ज में रहने लगे। वहा वह लखनऊ में छूटे अपने कबूतरों को बहुत याद करते थे। कहते हैं कि लखनऊ में उनके कबूतरखाने में चौबीस हजार कबूतर थे, जिनमें से बहुत से दिल्ली के नामवर कबूतरबाज़ों से काफी कीमत चुकाकर हासिल किए गए थे। उनमें एक जोड़ा रेशम परा का था जो बड़ा दुर्लभ था और उसकी क़ीमत पच्चीस हज़ार रुपए बताई जाती थी। उनके कबूतरखाने में दिल्ली ही से हासिल किया हुआ एक ऐसा अनोखा कबूतर भी था जो लड़कियों की चार उंगल कांच की चूड़ी से बल खा-खाकर निकल जाता था।

दिल्ली के एक नवाब साहब के पास दस हजार कबूतर थे जब उड़ते थे तो ऐसा मालूम होता था कि पानी से भरे हुए बादल आ रहे हैं या घटा छा गई है। नवाब साहब अपने कबूतरों को बढ़िया मलीदा, काबुली विहीदाना और अनार खिलाते थे। उन्हें अपने हर कबूतर की पहचान थी। एक बार उन्होंने सुबह-सवेरे कबूतर उड़ा दिए। कबूतर शाम तक उड़ते रहे। जब सब कबूतर वापस आ गए तो नवाब साहब ने देखा कि उनमें एक कबूतर नहीं था। नवाब साहब उस कबूतर के बारे में बहुत परेशान हुए। खाना-पीना छूट गया। नौकरों को इधर-उधर दौड़ाया, मगर इतने बड़े शहर में गुमशुदा कबूतर का मिलना आसान नहीं था। बड़ी कोशिश के बावजूद कबूतर का कोई सुराग नहीं लगा। यह कबूतर बड़ा दुर्लभ था। एक दिन नवाब साहब मुँह लटकाए बैठे थे कि उन्हें किसी ने ख़बर दी कि एक ग़रीब आदमी के मकान में एक छोटा-सा कबूतरखाना है और आपका कबूतर उसी ने पकड़कर बंद कर रखा है। नवाब साहब पालकी में सवार होकर उस आदमी के मकान पर पहुँचे। पहले तो उसने नवाब साहब की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि गुमशुदा कबूतर कटी हुई गुड्डी होती है कि जिसने लूट ली उसी की हो गई। लेकिन जब उसके इन्कार करने पर नवाब साहब की आँखों में आँसू आ गए तो उसने कबूतर उन्हें दे दिया।

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