-पुरानी दिल्ली में परिवहन का इतिहास

चांदनी चौक की संकरी गलियां..जहां दिल्ली बसती है। वही दिल्ली जो बेफिक्र है, बेलौस है और अपने अंदाज में जिंदगी का सफर जिए जा रही है। यह सफर जो शुरू हुआ था कि शाहजहां की बेटी और राजकुमारी जहांआरा बेगम के उस हसीन शहर की परिकल्पना से, जिसमें उन्होंने चौड़ी सड़के, खूबसूरत भवन और शहर के बीचो बीच बहते नहर के रूप में की थी। वही नहर जो रात को चांदी सा चमक उठती थी। जिसका दीदार करने खुद बादशाह सलामत भी आते थे। लेकिन गुजरते वक्त के साथ इस शहर को मानों किसी की नजर लग गई। संकरी गलियों में भले ही शहर अपनी तहजीब, परंपरा को जीवंत रखे हुए है लेकिन मुख्य मार्ग पर तो मानों चांदनी चौक सिसकियां लेते दिखती है। चाहे लाल किले के सामने देखे या फिर शीश गंज गुरूद्वारा चौक पर। चांदनी चौक आने वाली लगभग हर सड़क पर वाहनों का रेला ही दिखता है। तेज हार्न, मकड़जाल की तरह घेरे ई-रिक्शा आम है। कहीं एक दूसरे से आगे निकलने के लिए होड़ तो कहीं पार्किंग के लिए गुत्थमगुत्था करते लोग दिखते हैं। शहर जो कभी कायदे और कानून का पालन करने के लिए विख्यात था वहां इस कदर नियमों को रौंदते देखना भला कौन चाहता है? शायद यही वजह है कि एक बार फिर चांदनी चौक को वाहनों के मकड़जाल से मुक्त करने की योजना बनाई गई है। उपराज्यपाल के निर्देश पर चांदनी चौक को नो व्हीकल जोन घोषित करने की कवायद चल रही है। यह योजना, कितनी सफल या असफल साबित होगी, यह तो भविष्य में ही पता चलेगा कि लेकिन इसी बहाने पुरानी दिल्ली के सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर भी बहस हो रही है। जिसमें ट्राम का वो सुनहरा दौर भी शामिल है, जिसे चांदनी चौक का लगभग हर बाशिंदा आज भी याद करता है।

कई बार बन चुकी है योजनाएं

चांदनी चौक को 1650 ईस्वी में जहांआरा बेगम ने डिजाइन किया था। 1,560 दुकानों वाला यह बाजार मूल रूप से 40 गज चौड़ा और 1,520 गज लम्बा था। बाजार आकृति में चौकोर था तथा केंद्र में एक नहर बहती थी जो चांदनी रात में चमकती। और इसी कारण बाजार का नाम चांदनी चौक पड़ा। सभी दुकानों को उस समय आधे चंद्रमा के आकार के पैटर्न में बनाया गया था, जो अब विलुप्त हो गया था। यह बाजार अपने चांदी के व्यापारियों के लिए भी प्रसिद्ध था। लेकिन गुजरते वक्त के साथ औद्योगिक गतिविधियां बढ़ने की वजह से पूरा इलाका वाहनों के दबाव से कराह रहा है।

पैदल, घोड़ागाड़ी और बैलगाड़ी

इतिहासकार कहते हैं कि मुगल काल में पैदल और घुड़सवारी एक स्थान से दूसरे स्थान जाने के सुगम साधन थे। जबकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग कोहार द्वारा उठाकर ले जाने वाली पालकी का प्रयोग करते थे। खासकर, जब पुरानी दिल्ली में खरीदारी के लिए जाना होता था। दिल्ली में पालकी 19वीं सदी के आखिरी तक दिखाई दी थी। पालकी से जुड़ा एक किस्सा मशहूर उर्दू आलोचक एवं गालिब के शागिर्द हाली ने लिखा है- वो लिखते हैं कि गालिब पालकी के बिना घर से बाहर तक नहीं निकलते थे। दिल्ली कॉलेज (अब जाकिर हुसैन कॉलेज) में फारसी के प्रोफेसर पद को ठुकरा चुके थे क्योंकि इस पद के लिए साक्षात्कार लेने वाला अंग्रेज उनकी अगवानी के लिए बाहर नहीं आया था। जो गालिब के मुताबिक एक शिष्टाचार था, जिसका उसे पालन करना चाहिए था। गालिब की यह कुलीन शख्सियत उनके दौर ने गढ़ी थी लेकिन ग़ालिब के मानवतावादी नजरिये पर यह कुलीनता कभी हावी नहीं हुई। आरवी स्मिथ कहते हैं मुगल लंबी दूरी घुड़सवारी कर तय करते थे। शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित जरूर की थी लेकिन दोनों शहरों के बीच मुगल प्रशासकों का आना जाना लगा रहता था। इसीलिए, इन दोनों शहरों के बीच सड़क दुरूस्त बनाई गई थी एवं प्रत्येक एक मील पर आरामगाह बनाए गए थे। इस आरामगाह के उपर एक शख्स ड्रम लिए बैठा रहता था। दूर से ही प्रशासकों को आता देख वो ड्रम बजाता था। जिससे आरामगाह के बाकि सुरक्षाकर्मी अलर्ट हो जाते थे एवं खान-पान के इंतजाम में जुट जाते थे। हालांकि इस तरह की यात्रा के हकदार सिर्फ धनाढ्य घराने के लोग ही थे। 1910 में भी दिल्ली में लोग बैलगाड़ी से सफर कररते थे। तिमारपुर से ओखला की दूरी जो करीब 20 किलोमीटर थी एक दिन में पूरी होती थी। तड़के सुबह बैलगाड़ी से लोग चलते थे एवं रात में निजामुद्दीन में बने सराय में रूकते थे। सुबह दो से तीन घंटे के सफर में ओखला पहुंचते थे।

दिल्ली की धड़कन तांगे

इतिहासकार कहते हैं कि 1864 में दिल्ली-कलकत्ता के बीच शुरु हुई पहली रेल ने दिल्लीवालों के लिए दूरदराज के रास्ते खोले लेकिन आमतौर पर घोड़े, ऊंट, तांगे, ठेले, साइकिलें या दो पैरों का साथ ही आम आदमी की सवारी थी। दिल्ली में तांगों का चलन 18वीं सदी में मुहम्मद शाह के समय शुरू हुआ था। हालांकि शुरूआती दिनों में सिर्फ धनाढ्य और मध्यमवर्ग ही प्रयोग करता था। पुरानी दिल्ली की हवेलियों में तांगे की सुविधा जरूर होती थी। यही वजह है कि जितनी भी पुरानी हवेलियां है उनमें अस्तबल भी बने हैं। तुर्कमान गेट इलाका तांगों का गढ़ रहा है। यहां गधेवालों की गली भी है। मुगलों के जमाने में ये लोग काबुल से यहां आए और ये इलाका गधेवालों के नाम से जाना जाने लगा। जामा मस्जिद और लाल किला बनने के दौरान पत्थर और बाकि सामान इन खच्चरों पर लाद कर ही लाया जाता था। समय के साथ इन लोगों ने तांगा चलाने का पेशा अपना लिया। इनका बकायदा एक रूट होता था। मुख्य रूट तुर्कमान गेट, अजमेरी गेट, पहाड़गंज, तीस हजारी, दरियागंज थे। 4 आना में तांगे का सफर वो भी पांच अन्य यात्रियों के साथ करना कम खर्चीला था। तांगे-रिक्शे असल में दिल्ली की गलियों में बसने वाली जिंदगी का आईना थे। तांगे पर बैठकर जब आप कहीं से गुज़रते हैं तो हर छोटी-बड़ी चीज पर नजर पड़ती है। चांदनी चौक में तो इन तांगों के बीच प्रतियोगिता भी आयोजित होती थी। हर साल नवंबर महीने में तांगे वालों की कम्यूनिटी तांगों के बीच दौड़ आयोजित करती।

ट्राम से फट-फट सेवा तक

20वीं सदी में तांगों के प्रति लोगों का आकर्षण कम होने की मुख्य वजह थी ट्राम। सन 1906 में ‘दिल्ली इलेक्टि्रक ट्रामवेज लाइटिंग कंपनी’ ने शहर में ट्राम की शुरुआत की जो 1930 तक सिविल लाइंस, पुरानी दिल्ली, करोलबाग जैसे कुछ इलाकों में फैल गई। ट्राम शार्टर एवं लार्जर दो रूटों पर चलती थी एवं चांदनी चौक में मिलती थी। ट्राम की स्पीड कुछ ऐसी थी कि लोग चलती ट्राम से उतर एवं चढ़ जाते थे। ट्राम में तीन श्रेणियों के लिए किराया 1 से 4 आना होता था। इतिहासकारों की मानें तो ट्राम पुराने बसे इलाकों में ही चली। जैसे-जैसे नए इलाके बसे, दबे पांव नई सुविधाओं ने दिल्ली में दस्तक दी। 1911 के बाद दिल्ली में गतिविधियों के एक नए दौर की शुरुआत हुई। दिल्ली दरबार की शान बढ़ाने के लिए कई बड़े कार निर्माताओं ने दिल्ली की तरफ रूख किया। दरबार के दौरान हजारों की संख्या में आए विशिष्ट अतिथियों के लिए रोल्स-रॉयस जैसी कंपनियों ने ‘सिल्वर घोस्ट’ जैसे खास मॉडल बाजार में आए। दरबार के पहले ही नहीं बल्कि बाद में भी इन कंपनियों के इश्तेहार स्थानीय अखबारों और पत्रिकाओं में छाए रहे। इनके जरिए दरबार के दौरान इस्तेमाल हुई कारें सेकेंड-हैंड कारों के रुप में चार हजार से आठ हजार तक की कीमत में बेची गई।

इतिहासकार कहते हैं कि दिल्ली शहर में आवाजाही और परिवहन का नक्शा तेजी से बढ़ती आबादी और 90 के दशक में उदारीकरण के बाद नए अवसरों के पैदा होने से भी बदला। देशभर से लोग दिल्ली आए और उनमें से कई यहीं बस गए। दिल्ली का ये विस्तार सड़कों पर भी दिखा और रिंग-रोड के बाद बाहरी रिंग रोड से भी जब काम नहीं चला तो एक बाहरी-बाहरी रिंग रोड बनाने की नौबत आ गई। इस दौरान दिल्ली में शुरु हुई रेड-लाइन बस सेवा जिसका नाम बड़े चाव से लाल-परी रखा गया। बाद में दिल्ली मेट्रो ने चांदनी चौक की राह जरूर आसान की लेकिन समस्या अभी खत्म नहीं हुई है।

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