अगस्त 1914 में यूरोप का प्रथम महायुद्ध शुरू हुआ। नई दिल्ली की इमारतें बननी शुरू तो हो गई थीं, लेकिन युद्ध के कारण काम में शिथिलता आ गई। सरकारी दफ्तरों के लिए अलीपुर रोड पर खैबरपास के निकट आरजी इमारतें बनाई गई और यहीं वाइसराय की असेंबली का हाल बना। खैबरपास नाम इसलिए पड़ा कि माल रोड पर पहाड़ी काटकर दो रास्ते बनाए गए थे, जिनके ऊपर दरबार के लिए माल होने की रेलगाड़ी चलती थी। बाद में यह पहाड़ी तोड़ दी गई। वैवरपास पर अंग्रेजी बाजार भी था। उसकी निशानी चंद दुकानें अब भी बाकी हैं। कौंसिल आफ स्टेट मैटकाफ हाउस में लगा करती थी। उसी में उसके सदस्यों के रहने का प्रबंध भी था।
नई दिल्ली बसाने के लिए दिल्ली दरवाजे और अजमेरी दरवाजे के बाहर से लेकर कुतुब तक का नक्शा ही बदल गया और जहाँ खेत, पहाड़ियां और जंगल हुआ करते थे, वहां बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी होने लगीं, चौड़ी-चौड़ी सड़कें निकलने लगी और सैकड़ों-हजारों कोठियां और बंगले बनने लगे। यह अंग्रेजों की दूसरी दिल्ली थी।
पहली दिल्ली सिविल लाइन में थी, जो सोलहवी दिल्ली थी। और यह नई दिल्ली सत्रहवीं थी। नई दिल्ली को सर एडविन लिटन और हरबर्ट बेकर ने बनाया, जो अपने जमाने के विख्यात टाउन योजनाकार थे। मशहूर इमारतों में वाइसरिगल एस्टेट और भवन, उसके साथ सेक्रेटेरिएट के उत्तरी और दक्षिणी कक्ष, असेंबली की विशाल गोलाकार इमारत, क्वीन्सवे (राजपथ) और उसके दोनों बाजू की नहरें, खुले मैदान, विशाल विजय चौक और उसमें लगे फव्वारे हैं।
ये सब इमारतें जो लाल और सफेद पत्थर की बनी हैं, सुंदरता में संसार की उच्च कोटि की हैं। वाइसराय का भवन रायसीना की पहाड़ी पर बनाया गया था। वर्षों तक हजारों मजदूर और मेमार, लुहार और खाती, संगतराश और अन्य कारीगर इन इमारतों को बनाने के लिए काम करते रहे। जंतर-मंतर के पास जो जयसिंहपुर की आबादी हुआ करती थी, उसे हटाकर कनाट सर्कस का विशाल बाजार बनाकर खड़ा कर दिया गया। रेल का रुख भी बदलना पड़ा, उसको सड़कों के ऊपर से ले जाने के लिए हार्डिंग ब्रिज और मिंटो ब्रिज बने। सदर का स्टेशन तोड़ दिया गया और उसकी जगह नई दिल्ली का बड़ा आलीशान स्टेशन पहाड़गंज में बना दिया गया।
इन तमाम इमारतों को बनते-बनाते 18 साल लग गए। 15 फरवरी 1931 के दिन लाई इर्विन ने नई दिल्ली का उद्घाटन किया। 29,000 मजदूर इसके बनाने में लगे रहे और इसके बनाने पर 15 करोड़ रुपये खर्च हुए।
लार्ड हार्डिंग के बाद लार्ड चेम्सफोर्ड वाइसराय बनकर आए, जो 1916 से 1921 तक दिल्ली में रहे। इनके जमाने की यादगार तो केवल चेम्सफोर्ड क्लब ही है, जो रफी मार्ग पर स्थित है। पहले यह गोरों के लिए था, बाद में उनका जिमखाना क्लब बन गया और यह हिंदुस्तानियों का हो गया। वैसे चेम्सफोर्ड काल की बहुत-सी घटनाएं स्मरणीय हैं। यूरोप का पहला युद्ध, जो 1914 में शुरू हुआ था, 11 नवंबर 1918 के दिन बंद हुआ।
उसका बड़ा भारी जश्न मनाया गया। मगर युद्ध समाप्त होते ही अंग्रेजों ने आजादी की मांग को दबाना शुरू कर दिया और रौलेट बिल पास किया, जिसे काला कानून कहा जाता है। उसके विरोध में गांधीजी का 1919 का सत्याग्रह शुरू हुआ। दिल्ली में 30 मार्च 1919 के दिन बड़ी भारी हड़ताल हुई, जिसमें हिंदू-मुसलमान दोनों ही शरीक थे। उस दिन चांदनी चौक में गोली चली और कई आदमी मारे गए। फिर 6 अप्रैल को हड़ताल हुई, जो 17 अप्रैल तक चलती रही। दिल्ली के वे दिन बड़े ऐतिहासिक थे। हजारों नर-नारी जेल में गए, लाठियों और गोलियों के शिकार हुए। इसी प्रकार चेम्सफोर्ड काल दमन का काल गुज़रा। इसी जमाने में दिल्ली में इन्फ्लुएंजा की महामारी फैली, जिसमें करीब साठ हजार लोग मृत्यु को प्राप्त हुए। चेम्सफोर्ड के बाद लार्ड रीडिंग वाइसराय बनकर आए, जो 1921 से 1926 तक रहे। इनके जमाने की यागार नई दिल्ली में रीडिंग रोड है और हिंदूराव के बाड़े में लेडी रीडिंग स्वास्थ्य केंद्र है। दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना भी इनके काल में हुई। लार्ड रीडिंग का जमाना ही स्मरणीय है।
1922 में प्रिंस आफ वेल्स हिंदुस्तान आया, जो बाद में इंग्लैंड का सम्राट एडवर्ड अष्टम के नाम से पुकारा गया। गांधीजी ने प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन का बहिष्कार करवाया, जिससे देश भर में हड़तालों की लहर फैल गई। उसका बदला अंग्रेजों ने देश में हिंदू-मुस्लिम फसाद करवाकर लिया। इस फसाद ने बड़ा भयंकर रूप धारण कर लिया। उसी वर्ष गांधीजी को गिरफ्तार किया गया और उन्हें छह वर्ष कारावास की सजा दी गई, मगर 1924 में जब उनका एपेंडेसाइटिस का आपरेशन हुआ तो उन्हें रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद गांधीजी ने कोहाट के कौमी दंगों के बाद दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए 21 दिन का उपवास किया, जिसकी शुरूआत चेलों के कूचे (कूचा चेलान) में मौलाना मोहम्मद अली के मकान पर हुई थी और खात्मा मल्कागंज रोड पर लाला रघुबीर सिंह की कोटी पर हुआ था। ये दिन भी बड़े ऐतिहासिक थे।