Holi 2024: आजादी के बाद दिल्ली में होली का त्योहार मनाने के रिवाज में काफी बदलाव आया है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पहली बार राष्ट्रपति भवन में होली, दशहरा और दिवाली सरीखे त्योहार सामूहिक रूप से मनाने की शुरुआत की थी।
(Holi 2024) इन आयोजनों में राष्ट्रपति के मित्र, सेनाध्यक्ष समेत राष्ट्रपति भवन के कर्मचारी आकर मिलते और अबीर-गुलाल लगाते। हिंदी नाटककार जगदीशचन्द्र माथुर ने इसपर विस्तार से अपनी किताब “जिन्होंने जीना जाना” में लिखा है। उन्होंने लिखा है कि होली (Holi 2024) पर राष्ट्रपति भवन में संगीत और रूपकों के आयोजन की जिम्मेवारी मुझे करनी होती थी।
मुगल गार्डन में देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्रबाबू को मैंने भोजपुरी में होली (Holi 2024) के लोक-संगीत पर झूमते देखा। राष्ट्रपति भवन की दीवारें गायब हो जाती थी। इसके साथ ही दिल्ली का वैभव और उत्तरदायित्व का भार भी। सुदूर भारत के जिले के देहात की हवा मस्तानों को लिए आती और ग्रामीण हृदयों का सम्राट अपनेपन को पाकर विभोर हो जाता।
राष्ट्रपति ही नहीं बल्कि प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के यहां भी होली (Holi 2024) पर साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी जुटते थे। मशहूर रंगकर्मी जे.एन. कौशल अपनी पुस्तक “दर्द आया दबे पांव” में लिखते हैं कि वे पंडित नेहरू के जन्मदिन और होली के अवसर पर प्रधानमंत्री निवास जाया करते थे।
वहीं खुशवंत सिंह अपनी किताब “दिल्ली” में लिखते हैं कि उन्होंने पहली बार होली (Holi 2024) मॉडर्न स्कूल में ही मनाई। उस वक्त इस स्कूल के संस्थापक लाला रघुवीर सिंह के घर पर होली खेली जाती थी। पहली बार जिस लड़की के साथ मैंने होली (Holi 2024) खेली, वह एक सरदारनी ही थी। जिसका नाम कवल था। जिससे बाद में खुशवंत सिंह जी की शादी हुई।
बकौल खुशवंत सिंह होली के (Holi 2024) दिनों में मौसम सबसे अधिक सुहावना होता है। परिंदे अपने घोंसले बनाने में जुटे होते हैं। फूलों पर बहार आई होती है। दिल्ली में इतने फूल कभी खिले नहीं दिखते, जितने होली के दिनों में। विशेष रूप से टेसू या पलाश अपने पूरे यौवन पर होता है। उल्लेखनीय है कि पलाश के फूलों का होली से विशेष नाता होता है।
दिल्ली की होली (Holi 2024) की बात हो और मधुशाला (सुन आयी आज मैं तो होली की भनक, होली की भनक ए जी होली की भनक) का जिक्र ना हो तो बात बेमानी लगती है। कवि हरिवंशरॉय बच्चन ने अपनी चार खंडों वाली आत्मकथा के अंतिम खंड “दशद्वार से सोपान तक” में लिखा है कि अमित (अमिताभ बच्चन के चोट लगने से घायल होने पर) के साथ पहली फरवरी को हम यहां (दिल्ली) आये थे, मार्च में होली पड़ी, बुन्देलखंड के कवि ईसुरी की फागों के अनुकरण में मैंने तेजी (बच्चन) के विनोदार्थ एक फाग लिखी-
तेजी, दूर हो गए बेटे.
चले बम्बई से हम अपना सब सामान समेटे।
प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह “काशी के नाम” पुस्तक में अपने भाई काशीनाथ सिंह को लिखे एक पत्र (26 फरवरी 1966) में राजधानी में प्रवासियों के दुख को व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि लगता है, होली (Holi 2024) में न आ सकूंगा। इसलिए इस साल की होली मेरे बगैर ही मनाओ और इजाजत दो कि कम से कम एक साल तो दिल्ली की होली देख और खेल सकूं। जब यहां का नमक खा रहा हूं तो यहां की होली में भी शामिल होना ही चाहिए।
वरिष्ठ लेखक-पत्रकार सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 70 के दशक की होली पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि होली मनोरंजन का त्योहार है पर धीरे-धीरे वह इस भाव से कटता जा रहा है। यह मनोरंजन का लोकरंजन से कट जाने का ही चरम रूप है। राजधानी में दिन पर दिन रंग कम होता जा रहा है और पानी बढ़ता जा रहा है।
जबकि प्रसिद्ध समाजशास्त्री पूरनचंद जोशी अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिनों के बारे में बताते है कि उन दिनों वहां हमने सामुदायिक होली (Holi 2024) की भावना को बनाए रखा था। आर्थिक विकास संस्थान में सभी प्रांतो, सभी धर्मों के लोग थे। सबके घर से मिठाइयां आती थी. हमारे तब के निदेशक की पत्नी प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका शीला धर पक्का गाना गाती थीं और लोग भी गाते थे!
प्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी ने 80 के दशक में दिल्ली की होली के बारे में लिखा है कि जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्वार्टरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं! जबकि रघुवीर सहाय ने पुस्तक “लेखक के चारों ओर” में लिखा है हर बड़े शहर में ऐसे लोग हैं-राजधानी (दिल्ली) में तो बहुत हैं। ये लोग न तो यह जानते हैं कि वे होली (Holi 2024) क्यों नहीं खेलना चाहते न यह समझते हैं कि उन्हें होली क्यों खेलनी चाहिए।
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