ममता कालिया (Mamta Kalia) यूं तो अपने गद्य लेखन के लिए जानी जाती हैं परंतु उन्होंने अपना साहित्यिक सफर कविताओं से ही शुरू किया था। ममता कालिया की पद्य रचनाएं भी उनकी गद्य रचना के समान ही बहुत विशिष्ट हैं। ममता कालिया का जन्म 02 नवम्बर 1940 को वृन्दावन में हुआ। उनकी शिक्षा दिल्ली, मुंबई, पुणे, नागपुर और इन्दौर शहरों में हुई। उनके पिता स्व विद्याभूषण अग्रवाल पहले अध्यापन में और बाद में आकाशवाणी में कार्यरत रहे। वे हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान थे। आइए पढ़ते हैं ममता जी की बेहतरीन कविताएं
कभी कोई ऊंची बात नहीं सोचती
खांटी घरेलू औरत
उसका दिन कतर-ब्योंत में बीत जाता है
और रात उधेड़बुन में
बची दाल के मैं पराठे बना लूं
खट्टे दही की कढ़ी
मुनिया की मैक्सी को ढूंढूं
कहां है साड़ी सितारों-जड़ी
सोनू दुलरुआ अभी रो के सोया
उसको दिलानी है पुस्तक
कहां तक तगादे करूं इनसे
छोड़ो
चलो आज तोडूं ये गुल्लक…
2–
मामी तेरी रोती थी रातों में
चुप-चुप
जैसे कुहरा टपका करता भिनसारे में
टुप-टुप
मैं जग जाती समझ न पाती
फिर भी कहती
‘मामी रात में नहीं रोते हैं
अपना कच्चा-पक्का सारा दिन में ही पीते हैं’
मामी कहती
‘दिन में सांस कहां मिलती है
पौ फटते ही
कुनबे की चक्की चलती है
मेरी अम्मा पारसाल परलोक सिधारी
तब से अब तक
मेरे मन में फड़फड़ करती
याद पुरानी नहीं बिसारी
गई नहीं मैं
मामा को थी कुछ लाचारी
बाबू की जल गई हथेली रोटी पोते
भले-बुरे सपनों में अक्सर चौंक जागते सोते-सोते’
और कई दुख मामी के थे नये-पुराने
‘जिस दिन से इस घर में आई
कभी नहीं मैं अपनी मर्जी जीने पाई
तेरे मामा जाते है रज्जो के द्वारे
पकी-पुरानी फितरत उनकी
मेरा पतझड़ कौन बुहारे
तोहमत-तेवर-ताने में कट गई ज़िन्दगी
खर्च हुए दिन कौन संवारे
उनको कोई नहीं टोकता
नहीं रोकता
कहते हैं सब
मरदों के लक्षण ये सब
मन होता है उठा सरौता दाड़ी जाऊं
बोटी-बोटी पर रज्जो की
उसका सारा रज्जोपन पी जाऊं’
तब मैं कहती
‘मामी तुम कैसी हाकिम हो
मामा जैसी ही जालिम हो
रज्जो तो तुम-जैसी दुखिया
उसके हिस्से भी तो आया
आधा-पौना जूठा मुखिया
मामा को दो सजा अगर इंसाफ चाहिए’
मामी मेरे कान ऐंठती
‘सिर्री है तू जो मुंह में आया बक देती
आयेंगे जब मामा
करूंगी शिकायत
सीधी हो जायेगी तेरी सब पंचायत!’
3.
कोई उनसे पूछे
क्यों करते थे वे प्रहार
बात से नहीं
हाथ से नहीं
लात से
बगैर सूचना
घात से।
खास उस दिन जब लीला सोचती
कि उसने सब्जी स्वादिष्ट बनाई है।
साम्यवाद के समर्थक थे वे
क्यांे नहीं कहा उन्होंने, किसी घनिष्ठ क्षण,
‘इधर आओ तुम्हारी लात की मार देखूं।
वे तो चूसते रहे उसे
बोटी की तरह
मिलती रही जो उन्हें
दाल-रोटी की तरह।