जमाने को क्यों अखरती थी मिर्जा गालिब की शायरी

दिल्ली के शायरों का जिक्र हो तो बहादुर शाह जफर का नाम लेना लाजमी है। जफर की शायरी उस दौर के दूसरे शायरों की तरह सूफी इश्क के जिक्र से भरी थी। जो इंसान को खुदा से मिलाने का यकीनी जरिया है क्योंकि खुदा का मकाम आसमानों में नहीं बल्कि लोगों के दिलों में है।

सूफी दर्शन का केंद्र दिल है और यही मुगल दिल्ली की शायरी की बुनियाद थी। जिसकी अभिव्यक्ति गजल में होती है। यह नाम अरबी शब्द से लिया गया है जिसका मतलब है, “अपनी महबूबा से ‘मुहब्बत की “गुफ्तगू” ।”

गजल में यह साफ नहीं पता चलता कि यह सांसारिक इश्क है या आध्यात्मिक। महबूबा के लिए या खुदा के लिए। यह जानबूझकर किया जाता है क्योंकि इंसान की रूह अपने खुदा से मिलाप के लिए इतनी बेचैन और ख्वाहिशमंद होती है जितना कोई आशिक अपने माशूक से होता है। यह दोनों इश्क जुनून के दर्जे पर पहुंच जाते हैं जो सूफियों के लिए फना का मुकाम है।” अपने आपको मिटा देना या अपनी हस्ती को महबूब की हस्ती से मिला देना सूफी शायर की अपने अंदर खुदा को तलाश करने की खोज उसको धर्म के कट्टर उसूलों के बंधनों से आजाद कर लेती है ताकि वह उसकी अंदरूनी रूह तक पहुंच सके। जैसा कि गालिब ने कहा, “अपने अंदर झांककर देखो,” वह कट्टर मौलवी से कहते हैं, “खुदा के रहस्यों का संगीत तुम तक नहीं पहुंच सकता।

विलियम डेलरिंपल अपनी किताब द लास्ट मुगल में लिखते हैं कि दिल्ली के बाकि शायरों की तरह गालिब भी बहुत गहरी धार्मिक दर्शन की शायरी करते थे लेकिन वह कुरआन और हदीस को बगैर समझे लफ्ज-ब-लफ्ज मानने में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने अपने कई शेरों में जन्नत का मजाक उड़ाया है। वह अपने एक दोस्त को लिखते हैं: “यह सच है कि जन्नत में रोज सुबह पवित्र शराब पीने को मिलेगी, जैसा कि कुरआन में कहा गया है। लेकिन वहां मस्त दोस्तों के साथ रात को यह दूर तक टहलना कहां या बदमस्त लोगों का शोरगुल । वहां बरसात के बादलों की सरमस्ती कहां और जहां खिजा नहीं आ सकती वहां बहार कहां? अगर वहां हर वक्त हूरें मौजूद हैं तो मिलन की खुशी और बिछड़ने का गम कहां? वहां वह हसीना कहां जो बोसा मांगने पर भाग खड़ी हो? और इसी तरह गालिब ने अपनी शायरी में शेख को संकीर्ण और पाखंडी दिखाया है:

कहां मयखाने का दरवाजा गालिब

और कहां वाइज

बस इतना जानते हैं कल वह आता था जो हम निकले

अपने खतों में भी गालिब अक्सर उलमा का मुकाबला असली आध्यात्मिक शिक्षा से करते थे। जहां नबी व वली का कलाम पढ़कर असली आध्यात्मिक सच्चाइयां और खुदा के वजूद के असली राज जाहिर होते हैं जिसका जलवा हर चीज में नजर आता है।

गालिब दरबार के लोगों की तरह अपना दर्शन साबित करने पर तैयार थे। अगर खुदा लोगों के दिलों के अंदर मौजूद था और उस तक पहुंचने के लिए धार्मिक रस्मों की नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रेम की जरूरत थी तो वह हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए मौजूद था। एक बार जब वह बनारस गए तो उन्होंने यह भी कहा कि उनका दिल चाहता है कि वह वहीं रह जाएं और माथे पर तिलक लगाकर, कमर में पवित्र धागा बांध लें और गंगा के किनारे बैठकर अपनी हस्ती के तमाम गुनाह धो डालें और एक कुतरे की तरह दरिया में मिल जाएं।”

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