नजफ खां का मकबरा (1781 ई.)
नादिर शाह के हमले के बाद (1739 ई.) मुगलिया खानदान की बुनियाद ऐसी हिल गई कि कोई इंसानी ताकत उसे बहाल नहीं कर सकती थी। ले-देकर नजफ खां ही एक ऐसा व्यक्ति रह गया था, जिससे कुछ आशा बंधी हुई थी। उसके मरने से वह उम्मीद भी खत्म हो गई।
इसमें शक नहीं कि मुगल राज्य के अंतिम दिनों में जो नाम नजफ खां ने पैदा किया, वह किसी को नसीब न हुआ। यह बड़ा योग्य व्यक्ति था। पैदाइश से वह ईरानी था और खानदान का सैयद था। मिस्टर केन ने अपनी किताब मुगल एंपायर में लिखा है कि राज्य के तमाम काम और ताकत उसके हाथ में थी, जिसको उसके गुणों और बुद्धिमत्ता ने संभाल रखा था।
वह नायाब वजीर था और फौज का कमांडर इन चीफ भी। तमाम राजस्व का प्रबंध उसके नीचे था और मालगुजारी वसूल करना, दाखिल-खारिज – सब उसके अधीन था। इसके अलावा जिला अलवर और ऊपरी दोआबे का भी कुछ हिस्सा उसके सुपुर्द था। उसकी मृत्यु 1782 ई. में हुई बताई जाती है, मगर कब्र पर 1781 ई. लिखा हुआ है।
सफदरजंग के मकबरे से थोड़ा आगे बढ़कर कुतुब रोड के बाएँ हाथ की तरफ अलीगंज की बस्ती में नजफ खाँ का मकबरा है। यह नब्बे फुट मुरब्बा है और दो फुट ऊंचे चबूतरे पर लाल पत्थर का बना हुआ है। इमारत की छत दस फुट ऊंची है, जिस पर एक अठपहलू गुंबद 12 फुट व्यास के चारों कोनों पर बने हुए हैं। छत सपाट है और कब अंदर तहखाने में बनी हुई है। नजफ खां की कब्र के दाएँ हाथ उसकी लड़की फातमा की कब्र है। दोनों के तावीज संगमरमर के हैं, जो दो फुट ऊंचे और नौ फुट लंबे और आठ फुट चौड़े हैं। सिरहाने की तरफ जो संगमरमर के पत्थर लगे हैं, उन पर खुतबे लिखे हैं।
नजफ खां की मृत्यु के पच्चीस वर्ष के अंदर ही तथाकथित दिल्ली की बादशाहत हिंदुस्तान में कायमशुदा अंग्रेजों की सल्तनत में मिल गई और उसकी खुदमुखतारी का टिमटिमाता हुआ दीपक भी बुझ गया। जनरल लेक, जिसने दिल्ली के बादशाह को सिंधिया के चंगुल से निकाला था और फ्रांस वालों के अपमान से बचाया था, उसे राजधानी में ब्रिटिश हुकूमत का पेंशनख्वार बनाकर छोड़ गया और दिल्ली को फतह करने के तेरह दिन बाद 24 सितंबर 1803 ई. को कर्नल डेविड आक्टर लोनी को दिल्ली का दीवानी और फौजी हाकिम नियुक्त किया गया। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु को सौ वर्ष भी होने न पाए थे कि मुगलिया सल्तनत का इस जल्दी से खात्मा हो गया, जिसका कोई अनुमान भी नहीं कर सकता था।