मुगल दौर में दिल्ली में रहने वाले अंग्रेज मेरठ की ज्यादा रौनक वाली छावनी पर रश्क करते थे। क्योंकि न सिर्फ उनकी छावनी बहुत ज्यादा बड़ी थी बल्कि वहां अंग्रेजों की तादाद भी बहुत ज्यादा थी और वह अपने थिएटर और रेजिमेंट की शानदार नाच महफ़िलों के लिए बहुत मशहूर थे।

दिल्ली की रेजिडेंसी के एक अफसर की शिकायत थी कि जब उसका दिन का काम खत्म हो जाता है तो उसके लिए सिवाय लाइब्रेरी में पनाह लेने के और कोई चारा न था। उसका कहना था कि वह यूनानी और लातीनी चाहे भूल गया हो लेकिन होमर और सीजर के साथ वह अक्सर एक दो घंटे गुजारता था और दूसरे क्लासिकी किरदारों पर भी अक्सर नज़र मार लेता था।”

थियो मैटकाफ को क्लासिकी साहित्य पर वक़्त ख़राब करने का कोई शौक न था । वह अपनी दिलचस्पी के और ही सामान ढूंढ़ता था। पहले उसने अंग्रेज़ लड़कियों के साथ गाने का अभ्यास करना शुरू किया, “मैं फ़िलहार्मोनिक सोसाइटी का सदस्य बन गया हूं,” उसने अपनी बहन जीजी को लिखा, “इससे मेरी शाम अच्छी गुज़र जाती है। बस इसमें एक ही मुश्किल है और वह है कुछ ख़ौफ़नाक औरतों की मौजूदगी, उनमें से एक ” हेलिनर” ने कल मेरी तरफ अपनी सब्ज़ आंखों से एक गुस्सैले कुत्ते की तरह देखा लेकिन वह बिल्कुल खुश नहीं थी, क्योंकि पूरी शाम किसी ने उससे बात नहीं की। और जहां तक मिस फॉरेस्ट का सवाल है तो उस पर तो आजकल पांच अफ़सर लट्टू हैं। और मिसेज़ बालफोर (सर्जन की बीवी) उनका खुलेआम प्रोत्साहन करती हैं।”‘” थियो की बहन जीजी को भी संगीत की महफिलें बहुत पसंद थीं। हालांकि उसके लिए पियानो बजाना अपने मंगेतर एडवर्ड कैंपबैल से मिलने का बहाना था जो अगर सच पूछा जाए तो उसकी रुचि के लिहाज़ से काफी धीमा था, लेकिन उसको उसकी आवाज़ बहुत पसंद थी।

थियो ने दिल्ली के नए अदाकारों की ड्रामा कंपनी में हिस्सा लेने की भी कोशिश की और कई ड्रामों के किरदार भी अदा किये। यह ड्रामे स्काटलैंड और ब्रिटिश द्वीपों के मुसीबतज़दा लोगों की मदद के लिए किए गए थे। लेकिन दिल्ली गजट का कहना था कि “उसकी नहीं बल्कि रॉबिन रफहेड की अदाकारी बेहद पसंद की गई जिस पर लोग हंसी से बेकाबू हो गए और खूब तालियां

यह सब सर थॉमस को बिल्कुल पसंद न था। वह बहुत जल्दी सो जाता था और शाम को बिल्कुल हल्का खाना खाता था। उसकी बेटी एमिली याद करती है किः

वह शाम के आठ बजे खाने की मेज से उठ जाते थे ताकि जल्दी सो सकें। हम बड़ी दिलचस्पी से रोज़ाना उनका नियम देखते थे। जैसे ही आठ बजे का घंटा बजता तो वह फौरन अपना हुक्का छोड़कर उठ जाते और सबको गुड़नाइट कहते हुए गले से नैपकिन उतार कर ज़मीन पर फेंकते और दरवाज़े की तरफ जाते हुए अपनी वास्कट के बटन खोल रहे होते और दरवाज़े पर पहुंचकर सबकी तरफ हाथ हिलाते हुए वह पर्दे के पीछे अपने ड्रेसिंग रूम में गायब हो जाते।

इसके विपरीत दिल्ली वालों के लिए रात को दिन का बेहतरीन वक्त शुरू होता था। चांदनी चौक में तो जान ही सूर्योदय के बाद पड़ती थी। सड़कों के किनारे मुफस्सिल से आते हुए छोकरों, जाट किसानों और हरियाणा के गुज्जर गवालों की भीड़ लग जाती जो आंखें फाड़-फाड़कर उन जुआरियों को घूरते जो कोतवाली के बाहर बेड़ियों में जकड़े होते या सूफी दरगाहों की तरफ जल्दी-जल्दी मन्नतें मांगने जा रहे होते। दूसरी तरफ लखनऊ से आए लोग अपने ख़ास चौड़ी मोहरी के पाजामे पहने चहलकदमी कर रहे होते या घोड़ों पर सवार लंबे कद के दाढ़ी वाले पठान सौदागर जो पेशावर और अम्बाला से नए-नए आए थे सरायों से निकलकर घंटेवाला की मशहूर दुकान की तरफ जाते दिखाई देते जिस के लड्डू हिंदुस्तान भर में बेहतरीन माने जाते थे। अब कहवाख़ानों में भी भीड़ होने लगती। किसी मेज पर शायर अपना कलाम सुनाते और किसी पर विद्वतापूर्ण बहसें चल रही होतीं ।

जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर दास्तानगो अपने बयान शुरू कर देते जो सात-आठ घंटे तक सिर्फ एक छोटे से अंतराल के साथ चलता रहता। सबसे ज़्यादा पसंदीदा दास्ताने-अमीर हमजा थी, एक इश्क और बहादुरी की दास्तान जिसमें घरेलू किस्से, परंपराएं, धार्मिक बातचीत और चालू कहानियां भी शामिल थीं, और वक़्त के साथ-साथ हमजा के सफरनामे में शामिल हो गई थीं। हमजा पैगम्बर के चचा थे। अगर उस कहानी की कोई बुनियाद थी भी तो वह सदियों से कहानी दर कहानी में गर्क हो चुकी थी और उसमें देव, जिन, अजगर, जादूगर, शहजादे और शहजादियां, उड़ते कालीन और यहां तक कि उड़ते बर्तन भी शामिल हो गए थे जो जादूगरों के सफर का बेहतरीन जरिया थे।

अब तक इस दास्तान में बीस हज़ार से ज्यादा कहानियां शामिल हो चुकी थीं। और उनको पूरा सुनने के लिए कई हफ्ते रोजाना रात भर बैठना जरूरी था। इसकी कहानी छयालीस खंडों में प्रकाशित हो चुकी है। उधर लोग दास्तानगो के गिर्द जमा थे और खूबसूरत, बहादुर और सूरमा हमजा, उनकी हसीन ईरानी महबूबा और उनके खौफनाक दुश्मन जालिम, जादूगर, महाभावत जमुर्रदशाह के किस्से सुना रहा था और सीढ़ियों के दूसरी तरफ मशहूर कबाबची जानी कोयले की आग दहका रहा होता। दिल्ली वाले अपने मेहमानों को बेख़बरी में वहां ले जाना पसंद करते थे बगैर यह बताए कि जानी अपनी कबाबों का कीमा लाल मिर्चों में भिगोता है।

मौलवी मोहम्मद बाकर के बेटे जवान शायर आज़ाद ने एक अजनबी के बारे में बताया है जो दिन भर का भूखा था। उसने बड़ा सा मुंह खोल कर उसमें कबाब भर लिया और उसको ऐसा लगा गोया उसका दिमाग बारूद के धमाके से उसके मुंह से उड़ गया हो और जब चीख मारकर पीछे हटा तो उसके दोस्त ने उससे सिर्फ इतना ही कहा, “मियां हम तो इसी तीखे मजे के लिए यहां रहते हैं।

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