तेल और गैस के अधिकतम मात्रा में उत्पादन से गर्मी का दिखा प्रचंड रूप

लेखक: प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ स्तंभकार)

इस बार वैश्विक गर्मी (Global Warming) चरम पर है। विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) के अनुसार बीते वर्ष और पिछले दशक ने धरती पर आग बरसाने का काम किया है। अमेरिका की पर्यावरण संस्था वैश्विक विटनेस और कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन के निष्कर्ष में पाया है कि तेल और गैस के अधिकतम मात्रा में उत्पादन से यह हालात निर्मित हुए हैं। यदि इन ईंधनों के उत्सर्जन का यही हाल रहा तो 2050 तक गर्मी अपने चरम पर होगी।

डब्ल्यूएमओ ने चेतावनी दी है कि अगले पांच साल में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की 66 प्रतिषत आशंका है। इस गर्मी (Global warming) से जीव-जगत की क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। यूनिसेफ के साथ साझेदारी में अमेरिका के स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान ‘हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट (एचईआइ)‘ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2021 में दुनिया भर में 81 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हुई है। इनमें भारत में 21 लाख और चीन में 23 लाख मौतें दर्ज की की गई हैं। 2021 में भारत में पांच वर्ष के कम आयु के एक लाख 69 हजार 400 बच्चों की मौतें हुई हैं।

इसके साथ ही नाइजीरिया, पाकिस्तान, इथौपिया और बांग्लादेश में भी हजारों बच्चे वायु प्रदुषण के चलते काल के गाल में समा गए हैं। समूचे विश्व में बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। इसीलिए कहा जा रहा है कि इस बार धरती पर प्रलय बाढ़ से नहीं आसमान से बरसने वाली आग से आएगी। इसके संकेत प्रकृति लगातार दे रही है। फिर भी विडंबना है कि दुनिया के नीति-नियंता चेत नहीं रहे है।     

धरती पर रहने वाले जीव-जगत पर करीब तीन दशक से जलवायु परिवर्तन के वर्तमान और भविष्य में होने वाले संकटों की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और जलवायु बदलाव के बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। इस संकट से निपटने के उपायों को तलाशने के लिए 198 देश  जलवायु सम्मेलन करते हैं।

इन सम्मेलनों में होने वाली परिचर्चाओं के निष्कर्ष में वैश्विक तापमान के बढ़ते कारणों में कोयला, तेल और गैस अर्थात जीवाष्म ईंधन को माना जाता रहा है। इसके उपयोग को धीरे-धीरे कम करने की नसीहतें भी दी जाती रही हैं। लेकिन अब तक नतीजे ढांक के तीन पात्र रहे हैं। इन सम्मेलनों का एक ही प्रमुख लक्ष्य रहा है कि दुनिया उस रास्ते पर लौटे, जिससे बढ़ते वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक स्थिर रखा जा सके। लेकिन अब जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे स्पष्ट है कि कुछ ही सालों के भीतर गर्मी तापमान की इस सीमा का उल्लंघन कर लेगी। क्योंकि इस बार तीन सप्ताह से लगातार गर्मी का तापमान 40 से 55 डिग्री तक बना रहा है। राजधानी दिल्ली में यह तापमान 52.9 डिगी तक पहुंच चुका है। सऊदी अरब में भीषण गर्मी के चलते 1000 से ज्यादा हज यात्रियों की मौत हो चुकी हैं।

इस गर्मी का अनुमान पर्यावरणविदों ने पहले से ही लगा लिया है। इन्हीं की सलाह पर 100 से ज्यादा देश 2030 तक दुनिया की नवीनीकरण योग्य ऊर्जा को बढ़ाकर तीन गुना करने के प्रयास में लगे हुए हैं। इसके अंतर्गत अक्षय ऊर्जा के प्रमुख स्रोत सूर्य, हवा और पानी से बिजली बनाने के उपाय सुझाए गए हैं।  इस सिलसिले में प्रेरणा लेने के लिए ऊरुग्वे जैसे देश का उदाहरण दिया जा रहा है, जो अपनी जरूरत की 98 फीसदी ऊर्जा इन्हीं स्रोतों से प्राप्त करता है। इस साल दुनिया में सूरज से कुल खपत की छह प्रतिशत ऊर्जा प्राप्त हो रही है। प्रत्येक तीन साल के भीतर सौर् ऊर्जा संयंत्र स्थापित करने की क्षमता दोगुनी बढ़ रही है। अगले दस साल में इसके 10 गुना बढ़ने की उम्मीद है। 2035 तक सौर ऊर्जा बिजली का सबसे बड़ा स्रोत होगी। 2040 तक बिजली समेत अन्य ऊर्जा की जरूरतें इन्हीं सौर ऊर्जा संयंत्रों से पूरी होने की उम्मीद है। सोलर पैनलों से पैदा होने वाली बिजली ऊर्जा के अन्य स्रोतों से लागत में सस्ती है। इसका चिंताजनक पहलू यही है कि इस ऊर्जा को पैदा करने वाले सौर पैनल का सबसे ज्यादा निर्माण चीन में होता है। इस कारण वह इनकी कीमत अपनी इच्छा के अनुसार दुनिया के देशों से वसूलता है। भारत भी सूर्य से ऊर्जा उत्पादन की दिशा में लगातार बढ़ रहा है। अडानी समूह हरित ऊर्जा के संयंत्र गुजरात और राजस्थान में लगा रहा है। लेकिन यह एक अपवाद हैं, हकीकत यह है कि यूक्रेन और रूस तथा इजरायल और हमास के बीच चलते भीषण युद्ध के कारण कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन का प्रयोग बढ़ा है और  बिजली उत्पादन के जिन कोयला संयंत्रों को बंद कर दिया गया था, उनका उपयोग फिर से शुरू हो गया है।   

पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है, जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगी, नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा।

इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय  पर्यावरण सम्मेलन जिसे कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी/कॉप) के नाम से भी जाना जाता है में पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई। लेकिन वास्तव में अभी तक 56 देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन जापान और भारत भी शामिल है। लेकिन लंबे समय से चल रहे रूस और यूक्रेन तथा इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है, वह स्थिर रह पाएगा। क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे, उनमें से कई रूस ने चालू कर लिए हैं।

नवंबर 2021 में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि 2030 तक विकसित देश और 2040 तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का प्रयोग बंद कर देंगे। यानी 2040 के बाद थर्मल पावर अर्थात ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत-चीन ने पूरी तरह कोयले पर बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी, लेकिन 40 देशों ने कोयले से पल्ला झाड़ लेने का भरोसा दिया था। 20 देशों ने विश्वास जताया था कि 2022 के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को बंद कर दिया जाएगा। आस्ट्रेलिया के सबसे बड़े कोयला उत्पादक व निर्यातक रियो टिंटो ने अपनी 80 प्रतिशत कोयले की खदानें बेच दीं थीं, क्योंकि भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद होने के अनुमान लगा लिए गए थे। परंतु उपरोक्त युद्धों के चलते अनेक देशों ने अपने थर्मल पावर बंद नहीं किए हैं।

इन बदलते हालातों में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी।

आईपीसीसी ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रेखांकित किया हुआ है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है। गोया, कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान में 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाता है तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। इन गर्मियों में भारत समेत न केवल दुनिया के जंगलों में आग की घटनाएं बड़ी हैं, बल्कि उद्योग, अस्पताल और घरों तथा खड़ी व चलती कारों में भी बड़ी संख्या में आग की घटनाएं देखने में आ रही हैं। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर होगा, ऐसा नहीं है। समुद्र का तापमान भी इससे बढ़ेगा और कई शहरों के अस्तित्व के लिए समुद्र संकट बन जाएगा। इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र  की अंतर-सरकारी समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सभी देश यदि जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई क्योटो-संधि का पालन करते हैं, तब भी वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक 10.6 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नतीजतन तापमान भी 1.5 से ऊपर जाने की आशंका बढ़ गई है। दुनिया में बढ़ती कारें भी गर्मी बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण बनती जा रही हैं। 2024 में वैश्विक स्तर पर कारों की संख्या 1.475 बिलियन आंकी जा रही है। मसलन प्रत्येक 5.5 व्यक्ति पर एक कार हैं। जो आज कल गांव-गांव प्रदूषण फैलाने का काम कर रही हैं। इन पर भी नियंत्रण जरूरी है।

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