इनका नाम निजामुद्दीन औलिया था। दिल्ली वाले इन्हें सुलतान जी के नाम से पुकारते थे। इनका असल वतन बुखारा था। इनका जन्म 1232 ई. में हुआ और मृत्यु 1324 ई. में। बुखारा से इनके बुजुर्ग लाहौर आ गए, वहां से वे बदायूँ चले गए थे।

बारह वर्ष की उम्र में इनका रुझान शेख फरीदुद्दीन शकरगंज की तरफ हो गया, जो एक बड़े फकीर थे। बाद में यह विद्याध्ययन के लिए अपनी माता और बहन के साथ बादशाह बलवन के जमाने में दिल्ली आ गए। यहां आकर यह गयासपुर गांव में रहने लगे। इनका रिहाइशी मकान आज तक कायम हैं, जो हुमायूं के मकबरे के दक्षिण-पूर्वी अहाते की दीवार के पास है। कुछ वर्ष बाद इनकी माता की मृत्यु हो गई जिनकी कब्र अधचिनी गांव में है, जो कुतुब के रास्ते पर पड़ता है।

गयासपुर से जाकर यह मौजा किलोखड़ी में एक मस्जिद में रहने लगे थे। उस जमाने में इनके एक भक्त ने यह खानकाह तामीर करवाई थी। इनका गुजारा बड़ी कठिनाई से होता था। खाने की भी कठिनाई थी। जलालुद्दीन खिलजी ने इनकी सहायता करनी चाही, मगर इन्होंने बादशाह की मदद को स्वीकार न किया और तंगहाल बने रहे। बाद में फकीर की दुआ से इनके यहां किसी बात की कमी न रही।

मगर जो कुछ आता था, शाम तक यह सब तकसीम कर देते थे। इनके दान की चर्चा से इनके द्वार पर भीड़ लगी रहती थी, मगर कोई खाली हाथ न जाता था। इनके लंगर में हजारों आदमी रोज भोजन करते थे। बादशाह अलाउद्दीन खिलजी इनके दर्शन करने का बड़ा इच्छुक था, मगर इन्होंने उसकी इस इच्छा को कभी पूरा न होने दिया। आखिर उसने अपने दो लड़कों को इनका मुरीद बना दिया।

अमीर खुसरो इनके बड़े मुरीद थे और इनके ही साथ रहा करते थे। इनकी करामातों की बहुत सी कहानियां मशहूर – हैं। जब गयासुद्दीन तुगलक गद्दी पर बैठा तो इनसे नाराज हो गया। उसको हैं। बंगाल जाना पड़ा। वह इनसे इस कदर नाराज था कि जाते वक्त कहता गया कि वापस आकर मैं इस फकीर को शहर से निकाल दूंगा।

जब इन्होंने यह बात सुनी तो कहा- ‘हनूज़ दिल्ली दूर अस्त’-अभी दिल्ली बहुत दूर है। और जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, बादशाह जब दिल्ली वापस लौट रहा था तो वह अफगानपुर में, जो तुगलकाबाद से चार मील के फासले पर है, मकान के नीचे दबकर मर गया। उसके बाद मोहम्मद तुगलक गद्दी पर बैठा, जो इनका बड़ा मुरीद था, मगर उसके गद्दी पर बैठने के कुछ ही दिनों बाद 1324 ई. में 92 वर्ष की उम्र में इनकी मृत्यु हो गई। मौजा गयासुद्दीन, जिसका नाम बाद में मौजूदा निजामुद्दीन पड़ा, दिल्ली से पांच मील मथुरा रोड पर बाएं हाथ है। वह यहीं दफन किए गए। अमीर खुसरो का मकबरा भी इसी जगह है।

दरगाह निजामुद्दीन चिश्तियों की उन दरगाहों में से एक है, जो मुसलमानों के बड़े तीर्थस्थान माने जाते हैं। अजमेर, कुतुब और पाकपट्टन में दूसरी दरगाहें हैं। ये चारों फकीरों में से आखिरी थे और शेख  फरीदुद्दीन पाकपट्टन वालों के, जिन्हें शकरगंज भी कहते हैं, उत्तराधिकारी थे।

दिल्ली में बादशाह और फकीर की लड़ाई की कहानी जितनी मशहूर है, उतनी और कोई नहीं है। कहते हैं, फकीर ने तुगलकाबाद को शाप दिया था और कहा था कि वह या रहेगा ऊजड़ या वहां रहेंगे गूजर । और बादशाह ने शाप दिया था कि निजामुद्दीन के तालाब का पानी खारा हो जाएगा। दोनों शाप आज तक फलीभूत हो रहे हैं। कहानी इस प्रकार है कि बादशाह तुगलकाबाद का किला बनवा रहा था और फकीर अपनी बावली। दोनों जगह मजदूर एक ही थे। दिन में वे बादशाह के यहां काम करते और रात को औलिया के यहां चिराग जलाकर काम करते थे। उन बेचारों को सोने का समय नहीं मिलता था।

एक दिन थककर वे सो गए और काम में बाधा पड़ी। बादशाह को पता लगा। उसने पूछा कि क्या माजरा है। तब मजदूरों ने असल बात बतलाई। बादशाह ने हुक्म दिया कि इन्हें तेल न बेचा जाए। मगर औलिया की दुआ से बावली का पानी तेल की तरह जलने लगा और काम जारी रहा। तब बादशाह को क्रोध आ गया और उसने शाप दिया कि बावली का पानी खारा हो जाए। इस पर औलिया ने तुगलकाबाद के शहर को शाप दे दिया।

दरगाह का सदर दरवाजा उत्तर में सड़क के ऊपर है। हुमायूँ के मकबरे से जो सड़क सफदरजंग के मकबरे को जाती है, उस पर यह बाएं हाथ की ओर पड़ता है। दरवाजा उस फसील का है, जो सारी बस्ती को घेरे हुए है। इस दरवाजे पर और अंदर के दरवाजे पर जो बावली के पार है, तामीर करवाने की तारीख 1378 ई. लिखी है।

इनको फोरोज शाह तुगलक ने बनवाया था। निजामुद्दीन की बस्ती में दाखिल होते वक्त दाहिनी ओर चौंसठ खंभे की इमारत है और जरा आगे बढ़कर उसी रुख पर अकबर सानी की मलिका और शहजादियों की कब्रें हैं। बाईं तरफ एक छोटा-सा दरवाजा है, जहां जूते उतारे जाते हैं। इसी दरवाजे के कोने में कोई 500 वर्ष पुराना इमली का पेड़ है। इस दरवाजे के सामने साठ मुरब्बा फुट सहन है। दरवाजे के बाएं हाथ शरबतखाना है अर्थात संगमरमर का एक बहुत बड़ा प्याला है, जिसको मिन्नत, मुराद वाले दूध, शरबत या हलवे से भरते हैं। पास में ही मजलिसखाना है, जिसे औरंगजेब ने बनवाया था।

यहीं एक कमरे में मदरसा है और दाहिनी ओर अमीर खुसरो का मजार तथा चबूतरा यारानी है, जिस पर फकीर अपने दोस्तों के साथ बैठा करते थे। अमीर खुसरो अपने समय के विख्यात कवियों में से थे। इनका नाम ‘तूतीशकर मकाल’ (शक्कर की जवान वाला तोता) पड़ा हुआ था। इनको अद्वितीय कवि कहा गया है। सहज उर्दू जुबान को इनकी बड़ी देन है। इनकी मृत्यु 1324 ई. में हुई।

यह निजामुद्दीन के गहरे मित्रों में से थे। इस सहन के उत्तर में एक और सहन है, जिसमें संगमरमर का फर्श है और इसी में औलिया का मजार है। यह 19.5 गज लंबा और 8.5 गज चौड़ा है। इस अहाते में दूसरी कब्रों में जहांआरा बेगम की कब्र है, जो शाहजहां की लड़की थी और जो बादशाह की कैद के दिनों में उसका साथ देती रही।

इसकी कब्र पर लिखा हुआ है- ‘मेरी कब्र पर केवल घास ही उगा करे, क्योंकि मसकीनों की कब्र को घास ही ढकती है।’ इसके दाएं-बाएं आखिरी दो मुगल बादशाहों के लड़कों और लड़कियों की करें हैं। पूर्व की ओर मोहम्मद शाह बादशाह की कब्र है जिसकी मृत्यु 1748 ई. में हुई थी। नादिर शाह ने इसी के अहद में दिल्ली पर कब्जा किया था। फिर मिर्जा जहांगीर की कब्र है, जो अकबर शाह सानी का लड़का था और एक मस्जिद है, जिसका नाम जमाअतखाना है जो बहुत खूबसूरत बनी हुई है। दरगाह से अंदर जाने के लिए एक छोटा-सा दरवाजा उत्तर में हैं, जिसके चारों ओर पांच-पांच महराबें है जिनके बीस सुतून संगमरमर के हैं। इसका नाम ‘बस्त दरी’ है। इसके चारों ओर छह फुटा बरामदा है। मजार के हुजरे के चारों ओर संगमरमर की जालियां हैं। अंदर से हुजरा 18 मुरब्बा फुट है। सारा फर्श संगमरमर का है।

गुंबद भी संगमरमर का है। कलस सुनहरी है जिसके चारों ओर संगमरमर की छोटी-छोटी बुर्जियां हैं। मजार के सिरहाने की दीवार में संगमरमर की तीन जालियां हैं और सुनहरी काम का एक आला है। पूर्व में भी इसी प्रकार की जालियां हैं और दक्षिण की ओर अंदर जाने का दरवाजा है। उनके दोनों ओर भी जालियां लगी हैं। कब्र पर शामियाना लगा रहता है। कब्र के चारों ओर दो फुट ऊंचा संगमरमर का कटारा लगा है। फीरोज शाह तुगलक ने हुजरे के अंदरूनी भाग और गुंबद तथा जालियों की मरम्मत करवाई, चंदन के किवाड़ चढ़वाए, हुजरे के चारों कोनों पर सोने के कटघरे लगवाए। फरीद खां बानी फरीदाबाद ने 1608 ई. में मजार पर चंदन का छपरखट चढ़ाया, जिस पर सीप से पच्चीकारी का काम हुआ था। इस मजार पर हर वर्ष मेला लगता है।

दो और कब्रें काबिले जिक्र हैं। एक हैं- दौरान खां की। इसकी मस्जिद भी है। दूसरी है- आजम खां की, जिसने हुमायूँ की जान शेरशाह सूरी के मुकाबले में बचाई थी और फिर अकबर के जमाने में बहराम खां को पराजित किया था।

विभिन्न कब्रों के अतिरिक्त निजामी साहब का लंगरखाना दरगाह के पूर्वी द्वार के बाहर बना हुआ है। मजार के अहाते के बाहर उत्तरी द्वार से निकलकर एक दूसरे अहाते में वह बड़ी बावली है, जिसकी तामीर पर गयासुद्दीन तुगलक से नाराजगी हो गई थी। बावली 1321 ई. में बनकर तैयार हुई थी। इसका नाम चश्मा दिलखुश भी है। यह बावली 180 फुट लंबी और 120 फुट चौड़ी है, जिसके चारों ओर पक्की बंदिश है और उत्तर में पक्की सीढ़ियां आखिर तक चली गई हैं।

बावली में 50 फुट के करीब पानी रहता है। बावली के दक्षिण और पूर्व में दालान बने हुए हैं, जिनमें से दरगाह में जाने का रास्ता है। बावली के दक्षिण की सारी इमारत फीरोज शाह के वक्त की बनी हुई है। बावली के पश्चिम की ओर की दीवार पर एक बहुत सुंदर तीन दर की मस्जिद है, जिसकी छत पर एक छोटा-सा बुर्ज पठानों के समय का बना हुआ है। इस पर चढ़कर तैराक साठ फुट की ऊंचाई से बावली में कूदते हैं और तैराकी के करतब दिखाते हैं। इसके अतिरिक्त बाई कोकलदे- जो शाहजहां के वक्त में हुई हैं- की कब्र और गुंबद निहायत खूबसूरत बने हुए हैं।

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