अमीर खुसरो का असल नाम अबुल हसन था। वह हिंद के इने-गिने विख्यात कवियों में से एक थे और अपने मित्र हजरत निजामुद्दीन की कब्र के बिल्कुल नजदीक दफनाए गए थे। यद्यपि उन्हें गुजरे छह सौ वर्ष से ऊपर हो चुके हैं, लेकिन उनकी कविताएं आज भी उसी तरह मशहूर हैं। और वह उन चुने हुए चंद व्यक्तियों में से हैं, जिनकी याद लाखों इंसानों में कायम है।

उनकी पैदाइश हिंदुस्तान में तुर्क माता-पिता से हुई और बचपन में ही वह निजामुद्दीन के शिष्य बन गए थे। उनकी नौकरी का आरंभ सुलतान बलबन के एक मुसाहिब के तरीके पर हुआ, जो उस वक्त मुलतान का गवर्नर था। जब खिलजियों की हुकुमत शुरू हुई तो सुलतान जलालुद्दीन फीरोज शाह ने उन्हें अपना दरबारी नियत कर दिया और फिर तुगलकों के आने तक वह फीरोज शाह के जानशीनों के भी विश्वासपात्र बने रहे। यद्यपि गयासुद्दीन तुगलक चिश्ती पंथ और हजरत निजामुद्दीन का कट्टर विरोधी था, मगर खुसरो पर सदा उसकी इनायत रही।

जब मोहम्मद शाह गद्दी पर बैठा तो खुसरो का सितारा चमक उठा। बादशाह की उन पर खास कृपा दृष्टि थी। उसने उन्हें अपना लाइब्रेरियन मुकर्रर कर दिया था और बंगाल जाते वक्त अपने खास मुसाहिब के तरीके से उन्हें साथ ले गया था। जब वह बादशाह के साथ लखनौती में थे तो इन्हें निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु का समाचार मिला, जिसको सुनते ही उन्होंने अपना तमाम मालमता बेच डाला और दिली सदमे के साथ दिल्ली पहुंचे। वहां पहुंचने पर उनके दोस्तों ने, जिनमें चिराग दिल्ली के फकीर नासिरुद्दीन भी थे, उन्हें बहुत दिलासा दिया, लेकिन उनका रंज दूर नहीं हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने काला लिबास पहन लिया और छह महीने तक वह निजामुद्दीन की कब्र पर बैठे रहकर उसी की तरफ देखते रहे, जबकि जकाद महीने की 29 वीं तारीख हिजरी 725 (1324 ई.) को उनका शरीरांत हो गया।

हजरत निजामुद्दीन यह कहा करते थे कि खुसरो को उनके नजदीक ही दफनाया जाए। इस बात को याद कर उनके शिष्यों ने उनकी हिदायत के अनुसार उनकी कब्र के उत्तर में एक जगह पसंद की, मगर हुआ यह कि जो उमरा उस वक्त दिल्ली में प्रभावशाली थे, उनमें एक जनखा भी था, जो निजामुद्दीन का शिष्य था। उसको यह बड़ा नागवार गुजरा कि औलिया के नजदीक खुसरों को दफन किया जाए। इसे उसने औलिया का अपमान समझा। इसलिए खुसरो को चबूतरा यारानी पर दफनाया गया, जहां औलिया अपने शिष्यों और मित्रों को धर्मोपदेश दिया करते थे। खुसरो की कब की बाकायदा देखभाल होती है और यद्यपि औलिया निजामुद्दीन की कब्र की तरह उनकी कब्र पर कुरान नहीं पढ़ी जाती, लेकिन दर्शक बड़े विश्वास के साथ दर्शन को आते हैं। हर वसंत पंचमी को उनके मजार पर मेला लगता है।

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