पहाड़गंज के मुल्तानी ढांडा की मोठ कचौड़ियों का स्वाद लाजवाब

पत्तों के दोने में कचौड़ियों के साथ दाल, थोड़े से चावल और उस पर हरी लाल चटपटी चटनी। यही है मोठ कचौड़ी का अलग अंदाज और स्वाद। इसे बनते देख कर ही मुंह में पानी आ जाता तो खाने में कितना लजीज होगा इसका अंदाजा इसका स्वाद लेने पर ही आ सकता है। पहाड़गंज के मुल्तानी ढांडा में मोठ की कचौड़ियों का स्वाद बेजोड़ है। शायद यही वजह है कि यहां की कचौड़ियों का स्वाद चखने वाले पर्यटक बार बार यहां खिंचे चले आते हैं। भारत पाक विभाजन में मुल्तान से आए लोगों के साथ जायकों का संसार भी दिल्ली में बसा।

मुल्तानी ढांडा की चौक पर वर्ष 1948 में एक बेंच से शुरू हुए मोठ की कचौड़ियों की रेहड़ी अब दुकान में तब्दील हो गई है। इस 70 साल के सफर में चावला मोठ भंडार ने कई उतार चढ़ाव देखे लेकिन मोठ की कचौड़ियों का स्वाद में वो ही स्वाद का जादू बरकरार है। मोठ की दाल के साथ कचौड़ी का स्वाद खालिस मुल्तानी है। प्लेट में कचौड़ियों के साथ दाल और थोड़े से चावल के साथ मुल्तान की स्पेशल चटनी का संग इसे कचौड़ी के पत्ता अलग स्वाद से रूबरू कराता है। 70 साल पहले स्वर्गीय नंदलाल चावला ने इस दुकान की नींव रखी। तब यह दुकान मुल्तान से आए लोगों को एक साथ बैठने का बहाना दिया करती थी। लोग सुबह और शाम यहां जमा होते थे और कचौड़ियों पर चर्चा कर लेते थे। इस दुकान की खासबात यह भी है कि सुबह और शाम के वक्त अलग अलग स्वाद की कचौड़ियां खाने को मिलती है। सुबह के वक्त कचौड़ियों के साथ अलग दाल बनाई जाती है और शाम के वक्त अलग। इसमें प्याज और लहसून का भी इस्तेमाल नहीं होता। पिछले कई सालों से कचौड़ियों का आनंद लेते आ रहे सुभाषचंद्र बताते हैं कि 70 साल पहले एक यही दुकान थी जो मोठ की कचौड़ियां बेचा करते थे। इसकी खासियत इसके मसाले रहे हैं। यहां आज भी अनारदाने का खट्टा मीठा कुटा हुआ मसाला इस्तेमाल किया जाता है जिसके कारण कचौड़ियों में अलग चटपटा स्वाद आ जाता है। अब तो यहां कई परिवार मुल्तानी ढांडा छोड़ कर चले गए हैं। लेकिन जब भी वे यहां आते हैं तो यहां से कचौड़ियां पैक करा कर ले जाते हैं।

लकड़ी के बेंच पर रख कर बेचा करते थे कचौरियां

चावला कचौड़ियों की दुकान के संचालक तुषार बताते हैं कि वर्ष 1947 में विभाजन के वक्त परिस्थितियां बेहद अलग थी। मुल्तान से आए लोग शिविरों में रह रहे थे। पहाड़गंज के इलाके में कई परिवार के एक साथ आए। सभी लोगों ने घर चलाने के लिए कुछ न कुछ शुरू किया। हमारे परदादा ने भी बेंच पर कचौड़ियां बेचना शुरू किया। पिछले चार पीढ़ियों से चली आ रही मुल्तानी मोठ की दुकान पर आठ आने की कचौड़ियां बेची जाती थी। अब 25 रुपए में एक प्लेट बेचा जाता है। वे बताते हैं कि लाहौर में परदादा कचौड़ियां ही बेचा करते थे। सो दिल्ली में भी एक बेंच पर कुछ कचौड़ियां बना कर बेचना शुरू किया। बेंच पर लोग राजीनीतिक चर्चे किया करते थे और कचौड़ियों पर गर्मागर्म बहस भी हुआ करती थी। उनका वो बेंच काफी लोकप्रिय होने लगा। हर सुबह और शाम कचौड़ियों पर लोग बैठा करते थे और शौक से कचौड़ियां खाया करते थे। परदादा जी की मेहनत और उनके हाथों में स्वाद के जादू के कारण मोठ की कचौड़ियां के चर्चे होने लगे। तुषार बताते हैं कि हमारी परंपराएं खान पान दिल्ली वालों से अलग हैं, आज भी शादी ब्याह और अन्य समारोह में मुल्तानी जायके ही बनाए जाते हैं और खिलाए जाते हैं। इसलिए यहां के लोग तो हर मौकों में मोठ की कचौड़ियों का लुत्फ लेते हैं।

खट्टी उड़द दाल की वड़ियां

मुल्तान से आए परिवारों के घरों में वड़ियों की सब्जी खासतौर से पकाई और खिलाई जाती है। खास मौकों पर यहां की रिवायतों में वड़ियों की तरकारी पकाना भी शामिल है। मौसमी सब्जी के साथ साथ यहां वड़ियों की मसालेदार सब्जी भी पकाई जाती है। लोग यहीं से सूखी वड़ियां ले जाते हैं। यहां हर तरह के दाल की वड़ियां बनाई जाती हैं। वड़ियों के कई वरायटी है। हरे मूंग, पीली दाल, उड़द दाल की आधी सूखी वड़ियों को मर्तबान में रखकर सुखाया जाता है।

मुल्तानी ढांडा से लेकर संसद तक लोग लेते हैं चटकारे

मोठ की कचौड़ियों के स्वाद के चर्चे सत्ता के गलियारों में भी खूब है। इसलिए ससंद की विशेष बैठकों में मोठ की कचौड़ियों कका आर्डर दिया जाता है। मोठ भंडार के तुषार चावला बताते हैं कि यहां की कचौड़ियां हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आयोजनों में भी जाती हैं। दीवाली और अन्य आयोजनों में भी मोठ की कचौड़ियों के खास आर्डर आने लगते हैं। दिल्ली की कचौड़ियों से इस मोठ की कचौड़ियों का स्वाद एकदम अलग है। मुल्तानी ढांडा में तो लोग शाम को नाश्ते में कचौड़ियों के साथ ही चाय का लुत्फ लेते हैं।

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