1857 की क्रांति: बादशाह बहादुर शाह जफर को कैद कर लिया गया था। शहजादे और बादशाह की बेगम भी कैद में ही थी। शाही खानदान के हालात चाहे कितने भी खराब हों लेकिन वह दिल्ली के आम लोगों से बहुत बेहतर थे, जिनमें से ज्यादातर इधर-उधर गांवों में या मकबरों और खंडहरों में पनाह लिए हुए थे और जंगली फलों के जरिए या खाने की भीख मांगकर गुजारा कर रहे थे। शहर की दीवारों के अंदर बहुत कम लोग रह गए थे और उनमें से ज़्यादातर भूखे मर रहे थे।

चार्ल्स ग्रिफिथ्स लिखता है:

“सारे शहर के तहखाने लोगों से भरे थे, जो बुढ़ापे या कमजोरी की वजह से उन लोगों की भीड़ के साथ नहीं जा पाए थे, जो दिल्ली पर कब्जा होने के आखरी दिनों में शहर छोड़कर भागे थे। सैकड़ों भूख के मारे औरतें और बच्चे उन जगहों पर दुबके पड़े थे। मैंने इतने बदहाल लोग कभी नहीं देखे। “शहर में उनके खाने के लिए कुछ नहीं बचा था और उनकी मौजूदगी से महामारी का खतरा भी था। इसलिए जनरल के आदेश से उन्हें दिल्ली के दरवाज़ों के बाहर कर दिया गया।

सैकड़ों लोगों को इस तरह लाहौरी दरवाज़े से गुजरते हुए शहर से बाहर जाते देखना एक दर्दनाक दृश्य था… हमसे कहा गया था कि उनके लिए कुछ मील की दूरी पर एक जगह खाना मुहैया किया गया है, इसलिए उम्मीद है कि वह भूख से मरने से बच जाएंगे, लेकिन हमें यकीन नहीं था। हम जानते थे कि प्रशासन इंसानी दुख-तकलीफ के प्रति कितना असंवेदनशील हो गया है। और मुझे डर था कि उनमें से बहुत से लोग बगैर किसी मदद के भूख और आवारगी से मर गए होंगे।”

शहर के अंदर, अंग्रेजों के उन पक्के समर्थक सेवकों के लिए भी जिंदगी मुश्किल हो गई थी, जिन्होंने अपनी हवेलियों में रहना बेहतर समझा था। सरकारी और गैर-सरकारी लुटेरों की टोलियां घर घर जाकर, बिखरे साजो-सामान और लुटी हुई दुकानों से गुजरतीं और अंदर घुस जातीं और जो कुछ भी मिलता उसको लूट लेतीं, और अगर उन्हें तहखानों में छिपा कोई मिलता, तो वह उस पर ज़बर्दस्ती करते कि वह बताए कि सारा माल कहां छिपा रखा है।

चार्ल्स ग्रिफिथ्स ने लिखा, “हम सब (सिपाहियों) के लिए शहर की लूट जमा करना उन तमाम मुश्किलों और मुसीबतों का बदला था, जो हमें झेलनी पड़ी थीं। और ऐसा करते हुए इसका अनुपयुक्त तरीका भी कभी हमारे जमीर पर बोझ नहीं बना, क्योंकि हम तो जाने-माने फौजी कानून पर अमल कर रहे थे कि ‘अगर किसी शहर पर हमला किया जाए, तो उसका सब माल विजेता का होता है…”यह तो इंसानी स्वभाव और शिकारी भावना के खिलाफ होता, अगर सिपाही उस लूटमार की आसानी का फायदा नहीं उठाते, जो चारों तरफ उन्हें उपलब्ध थी।

इसकी भी उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि अगर किसी शख्स को काफी कीमती माल मिल जाए, तो वह सारा माल प्रशासन के पदाधिकारियों को दे देगा… अक्सर जब मैं लूट की तलाश में दूसरे लोगों के साथ शहर में घूम रहा होता था, तो मुझे और भी अफ्सर दिखाई देते जो इसी धुन में लगे होते थे…”

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