1857 की क्रांति : बहादुर शाह जफर का खास ख़िदमतगार जहीर देहलवी ने 1857 की क्रांति पर विस्तार से लिखा है। क्रांतिकारियों के शहर में दाखिल होने पर यह बहुत परेशान हुआ। जफर ने जब सिपाहियों को आता देखा तो अपने सब नौकरों को बुलवा भेजा। जब चारों तरफ़ सड़कों पर आग लगी थी तो जहीर ने अपना खंजर और तलवार निकाली जो बरसों से बगैर इस्तेमाल किए पड़ी थीं और उनको पेटी में लगाकर बादशाह के आदेश की तामील करने चल पड़ा। बाहर उसको गोलियां चलने की आवाजें आ रही थीं, थोड़ी दूर पर बेकाबू भीड़ ईसाइयों को ढूंढ-ढूंढ़कर मारने और साहूकारों की दुकानें लूटने में मसरूफ थी। वह हिम्मत जुटाकर घोड़े पर चढ़ा और अपने खाली और बंद मुहल्ले मटिया महल से होता हुआ जामा मस्जिद की तरफ रवाना हो गया।

उसने लिखा है कि

जब में छोटे दरवाज़े के पास पहुंचा तो मैंने देखा कि चार-पांच सवार कुर्ता धोती पहने, एक रूमाल सर पर बांधे, कमर में तलवार लटकाये, पीपल के पेड़ के नीचे नहर की दीवार के पास खड़े हैं। कुछ हिंदू लोग उनसे बातें कर रहे थे और उनकी ख़ातिर-तवाजो कर रहे थे। कुछ उनके लिए गर्म-गर्म पूरियां लेकर आए थे और कुछ मिठाइयां और पानी ला रहे थे। मैंने उनकी तरफ कोई खास तवज्जो नहीं दी, बल्कि किले की तरफ बढ़ता गया।

थोड़ी देर बाद मैंने कुछ और बदमाशों को देखा जो एक पहलवान के पीछे आ रहे थे। वह भी धोती कुर्ता पहने था और उसके सर पर टोपी थी और कंधे पर लंबा डंडा। और उसके साथ कई आदमी उसी तरह के कपड़े पहने हुए थे। अशरफ बेग के घर के पास उस आदमी ने सड़क के किनारे लगी हुई खंभे की रोशनी पर अपना डंडा मारा और उसका शीशा टूटकर जमीन पर बिखर गया। वह अपने दोस्तों को देखकर हंसा और बोला, ‘देखों मैंने एक और काफिर को मार गिराया।और फिर वह सब जाकर एक कपड़े की दुकान का ताला तोड़ने लगे और मैं अपने घोड़े पर जल्दी से वहां से आगे बढ़ गया।

“कोतवाली के सामने भी बदमाशों का एक गिरोह जमा था। रास्ते की सारी दुकानें लूटी जा रही थीं। शहर के सब बदमाश इन गुंडों और मुज़रिमों के साथ हो लिए, लालच और जोश के मारे वह बागियों को बैंक के दरवाजे पर ले गए और वहां बेरेसफोर्ड परिवार के लोगों को जो अंदर थे-मर्द, औरतें, बच्चे–सबको मार डाला और तिजोरी को तोड़कर उसके अंदर रखे सब नोट लूट लिए। यह सब बलवा करने वाले कुछ बागी सिपाही थे, कुछ जेल से निकले मुजरिम।

चांदनी चौक में भी हर तरफ लूटमार मची थी। लोग परेशानी में इधर से उधर दौड़ रहे थे, ख़ून की नदियां बह रही थीं और बलवाइयों ने दुनिया में ही जहन्नम का नक्शा बना दिया था। नाहीं उनको कोई अपराधबोध था और नाहीं किसी का डर था। कुछ था तो बस माल लूटने की हवस, बगैर किसी का ख्याल किये। “जब मैं किले के दरवाज़े पर पहुंचा तो मैंने देखा कि पचास लोग लाइन लगाए अंदर जाने के रास्ते की निगरानी कर रहे हैं। वहां ज़ोर की हवा चल रही थी और उसमें एक फटी हुई अंग्रेज़ी किताब के पन्ने किले की दिशा में उड़ रहे थे…’

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