दरबार से ताल्लुक रखने वालों पर आयी सामत, दिल्ली रहना हुआ मुहाल

1857 की क्रांति: 21 सितंबर की सुबह से पत्रकार व लेखक जहीर देहलवी को बर्फखाना इलाके से खबरें आनी शुरू हो चुकी थी कि दरबार के तमाम ब्रिटिश-समर्थक लोगों–जो शहर में रह गए थे-को कत्ल कर दिया गया है। उनमें से एक मीर हैदर अली थे, जो दरबार में ब्रिटिश तरफदारों में सबसे आगे थे।

जहीर को अंदाजा था कि कोई भी शख्स जिसका ताल्लुक दरबार से रहा हो वह अंग्रेजों के लिए जायज निशाना था। इसलिए उन्होंने सोचा कि अब वक्त आ गया है कि वह और उनके भाई खानदान से अलग होकर कहीं दूर जाकर पनाह लें। उन्होंने कहा:

“हमने सुना कि जो अंग्रेजों के लिए जासूसी करते रहे थे, वह अब उनके मुखबिर बनकर सूचना देने का काम कर रहे हैं और लूटमार में और लोगों को मारने और सूली पर चढ़ाने में उनकी मदद कर रहे हैं जिसके लिए उनको प्रति आदमी दो रुपए इनाम मिलता था।

“नवाब हामिद अली खान ने मेरी मां से कहा कि मेरे भाई का और मेरा वहां बर्फखाने में रहना उन्हें सुरक्षित नहीं महसूस हो रहा।

उन्होंने कहा, ‘यह लोग (अंग्रेज और उनके मुखबिर) किसी भी ऐसे शख्स को जिंदा नहीं छोड़ेंगे, जो दरबार से संबंधित रहा हो।’ इसलिए मैंने बहुत सम्मान के साथ अपने पिता से कहा, ‘यह सच हैः हमें जाना ही पड़ेगा, आपको हमारी जुदाई सहनी होगी और मुझे और मेरे भाई को जाने की इजाज़त देनी होगी। हम जहां खुदा चाहेगा, वहां चले जाएंगे। मुझे खासतौर से अपने भाई की सलामती की फिक्र है क्योंकि वह बादशाह की फौज में काम करता था और अंग्रेज़ उसे हरगिज जिंदा नहीं छोड़ेंगे। अगर खुदा की मेहरबानी से हम ज़िंदा बच गए, तो हम वापस आकर आपको ढूंढ़ निकालेंगे’ ।

“फिर मैंने कुछ चांदी के सिक्के लिए और उनको अपने जूतों की तह में सी लिया और दो सिक्के अपने कमरबंद में बांध लिए। एक दोपट्टा मैंने कमर में बांधा और एक लकड़ी हाथ में ली। मेरी बीवी जो बहुत शर्मीली थी, चुपके-चुपके रो रही थी। उसके पिता और भाई की हाल में ही मौत हुई थी, और अब उसका पति भी जा रहा था। जाते-जाते मैंने उसके कान में कहा कि मैं उसको अल्लाह के हवाले करके जा रहा हूं, ‘अगर मैं जिंदा रहा, तो तुम्हें लेने आऊंगा, लेकिन अगर मैं मर गया तो मुझे माफ कर देना’। यह कहकर मैंने खुदा का नाम लिया और ख्वाजा साहब के मजार की तरफ महरौली रवाना हो गया।”

जहीर अभी आधा मील ही गए होंगे कि उन्होंने घुड़सवारों का एक दस्ता अपनी तरफ आता देखा। “जब वह हमारे पास पहुंचे, तो उन्होंने हमको घेर लिया और कहा कि वह देखना चाहते हैं कि हम क्या ले जा रहे हैं। जब उन्हें कुछ नहीं मिला, तो एक आदमी ने मेरी पगड़ी उतार ली। फिर मैंने कमर से दोपट्टा खोलकर अपने सिर पर बांध लिया। लेकिन थोड़ी देर बाद एक और लुटेरे से उसे देख लिया और आकर उसे भी उतार लिया।”

यह उस खानाबदोशी की जिंदगी की अशुभ शुरुआत थी, जो अगले पांच साल तक ब्रिटिश सिपाहियों से छिपते हुए उन्होंने उत्तरी भारत में घूमते हुए गुजारी। हालांकि वह कई बार दिल्ली वापस आए, लेकिन वह इसे दोबारा कभी अपना घर नहीं बना पाए, और जैसे-तैसे करके, कभी घोड़ों की सौदागरी करते हुए और कभी एक दरबार से दूसरे दरबार जाते हुए उन्होंने गुजारा किया, जहां उनकी खुशनवेसी और उर्दू शायरी में महारत उनको कम से कम खाने और पनाह पाने का जरिया बन सकी।

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