1857 की क्रांति: अंग्रेजों के कत्लेआम में एक आदमी जो बच गए वह सहबाई के भांजे कादिर अली थे। जो उनके साथ दिल्ली में रहते थे। उन्होंने बुढ़ापे में अपने बचने की दास्तान दिल्ली के इतिहासकार राशिदुल खैरी को सुनाई। उन्होंने बताया कि दिल्ली एक फैसलागाह बनी हुई थी, लेकिन वहां लोगों को बजाय फांसी देने के गोली मारी जा रही थी। सिपाही अपनी बंदूकें तैयार कर चुके थे कि तभी एक मुसलमान अफसर हमारे पास आया और कहने लगा, ‘तुम्हारी मौत अटल है। तुम्हारे सामने बंदूकें हैं और तुम्हारे पीछे नहीं है। तुममें से जो कोई भी तैर सकता है उसे चाहिए कि नदी में कूद जाए और अपनी जान बचाए।’

मैं अच्छा तैराक था, मगर मामू साहब (सहबाई) और उनके बेटे मौलाना सोज को तैरना नहीं आता था। मेरे लिए यह सहन करना नामुमकिन था कि में अपनी जान बचा लूं और उन्हें छोड़ दूं। मगर मामूं साहब ने बहुत जिद की इसलिए मैं दरिया में कूद गया और तैरने लगा। मैं पीछे मुड़कर देखता रहा और कोई पचास-साठ गज जाने के बाद मैंने बंदूकों की आवाज सुनी और देखा कि लोगों की कतार गिरकर मर रही थी।

जहीर देहलवी को उस दिन एक और भारी नुकसान उठाना पड़ा। उनके ससुर ने चुपचाप तीन अंग्रेज औरतो को पूरी घेराबंदी के दौरान पनाह दी थी और उन्हें यकीन था कि वह उनकी सुरक्षा का कारण बनेंगी, इसलिए वह अपने पूरे खानदान के फरार हो जाने के बाद भी शहर में रह गए थे। लेकिन फिर भी वह लूटमार करते हुए अंग्रेजों के हाथों अपने बेटे और दो नौकरों के साथ मारे गए। उस रात को जब दीवाने-खास में अंग्रेज़ अफ्सर दावतें उड़ा रहे थे, शहर में कत्ले-आम और लूटमार जारी रही।

एक अफसर जिसको अहसास था कि क्या हो रहा है, मेजर विलियम आयरलैंड था। उसने लिखा है: सिपाहियों ने दिल्ली से खजाने और जवाहरात लूटने के ख़्वाब देखे थे, जिससे वह और उनके खानदान हमेशा के लिए अमीर हो जाएंगे। जनरल विल्सन ने वादा किया था कि जब शहर को लूटा जाएगा, तो सारा माल फौज में बांटा जाएगा।

इसलिए हर दरवाज़े पर पहरा लगा दिया गया ताकि जो भी कुछ माल बाहर ले जाने की कोशिश करे, उससे वह छीन लिया जाए, लेकिन सिपाही इतनी आसानी से रुकने वाले नहीं थे। वह बैलगाड़ियों पर सामान लादकर रात को शहर की दीवारों के पास ले जाते और दीवारों के बाहर खड़े अपने साथियों को ऊपर से फेंक देते। बहुत सी औरतों को भी उन्होंने पकड़ लिया और साथ ले गए। जब तक यह सब माल पंजाब से गुज़रता नहीं देखा गया, तब तक उत्तर-पश्चिमी मुसलमान शहरों में किसी ने इस बात का यकीन नहीं किया था।

दिल्ली के बहुत से नागरिक रहम के लिए अपने हाथ जोड़ते हुए मार डाले गए। हालांकि हम जानते थे कि उनमें बहुत से लोगों ने हमारा भला चाहा था। मर्दों और औरतों सबकी बेबसी पर दया करनी चाहिए, खासतौर से जब उन्होंने हमें कोई नुक्सान नहीं पहुंचाया था। किसी अफ्सर का किसी कांपते हुए बूढ़े आदमी के जिस्म में तलवार घुसा देना या किसी सिपाही का किसी जख्मी लड़के का भेजा गोली से उड़ा देना उतनी ही बड़ी नामर्दी की बात है जितना कि किसी औरत को मारना।  

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