1857 की क्रांति: 11 सितंबर को अंग्रेजों ने अपनी तमाम तोपों से दिल्ली शहर को निशाना लगाना शुरू कर दिया ताकि उनके गोले एक साथ शहर की दीवारों पर पूरी ताकत के साथ गिरें। दोपहर तक शहर की दीवारें चरमराने लगीं और धूल और मिट्टी के गुबार बनने लगे और चूना और ईंटें गढ़ों में गिरने लगीं।
कश्मीरी दरवाजे पर लगी तोपें जल्द ही खामोश हो गई और दीवारों में दो बड़ी दरारें बन गईं, एक कश्मीरी बुर्ज के पास और दूसरा यमुना के सामने वाले बुर्ज पर। भूख और प्यास के बावजूद फौजी बहुत बहादुरी और हिम्मत से लड़ते रहे, ऐसे जोश से जो अब से पहले उन्होंने नहीं दिखाया था।
वह दर्जनों घुड़सवारों को दरवाजे से बाहर कुलियों, इंजीनियरों और तोपचियों को तंग करने के लिए भेजते रहे, कुछ ही दिन में अंग्रेजी फौज में मरने वालों की तादाद 400 से ज्यादा हो गई।
चार्ल्स ग्रिफिथ्स का कहना था कि “हालांकि बुर्जों पर उनकी तोपें खामोश हो गई थीं, पर फिर भी बागी अपनी बंदूकें लेकर दीवारों के सामने खुले मैदान में जमे रहे और यमुना के किनारे वाले मीनार से गोलियों की बौछार करते रहे और दीवारों और खाइयों से भी बंदूक की निशानाबाजी हो रही थी।”
अंग्रेजों की कई तोपों में आग लग गई और वहां ‘रेत के बोरों, टोकरियों और लकड़ी के गट्टरों का सुलगता हुआ ढेर रह गया’ ।” एडवर्ड वाइबर्ट को भी मानना पड़ा कि ‘बागी ऐसे जोश और हिम्मत से लड़ रहे हैं जिसकी उम्मीद नहीं थी।
दीवारों की बुर्जियां नष्ट हो गई हैं, फिर भी वह हमारी गोलियों का जवाब दे रहे हैं और वह इतनी तादाद में हैं कि हर रोज चारों तरफ से हम पर हमले करते हैं। हम उनको कभी उन दीवारों से हटा नहीं पाएंगे जब तक हम अपनी संगीनों को काम में नहीं लाएंगे।