15 सितंबर के दिन दिल्ली में क्या क्या हुआ
1857 की क्रांति: 15 और 16 सितंबर 1857 को दिल्ली का भाग्य अधर में लटका रहा। अंग्रेज कश्मीरी गेट से आगे नहीं बढ़े। सिवाय दिल्ली कॉलेज पर थोड़ा सा आगे खिसकने के। 16 सितंबर को उन्होंने उसके दक्षिण में बने जंगी सामान के गोदाम पर कब्जा कर लिया। फिर वह एक घर से दूसरे तक बढ़ते हुए स्किनर की हवेली से चांदनी चौक की तरफ बढ़े।
चार्ल्स ग्रिफिथ्स का कहना है कि ‘हमारे मुकाम से आगे कुछ घरों पर कब्जा कर लिया गया, लेकिन बड़े पैमाने पर कोई हरकत नहीं की गई क्योंकि यूरोपियन पैदल फौज के ज़्यादातर लोग काफी हतोत्साहित थे।
तीन बार आहिस्ता आहिस्ता बढ़ने के बाद ब्रिटिश लाल किले की तोप के निशाने के अंदर तक पहुंच गए, लेकिन जबरदस्त विरोध को देखते हुए वह और आगे नहीं बढ़ पाए। उस झुंझलाहट में उन्होंने दिल्ली कॉलेज के बाग में एक तोप लगाकर शाहजहां के शानदार महल पर गोलीबारी शुरू कर दी। पश्चिम में भी वह शहर की दीवारों की तरफ और ज़्यादा नहीं बढ़ पाए और बख्त खां के दस्तों और तोपों की वजह से जो अब बर्न के बुर्ज पर जमा थे, वहीं फंस गए।
इस मायूसी में ब्रिटिश फौजियों ने अपने आपको शराब और लूटमार में डुबो दिया और जल्द ही सारा अनुशासन तक भूल गए। मेजर विलियम आयरलैंड का कहना है कि “हमारे लोग बिल्कुल अनियमित और बेलगाम हो गए और हमारी स्थिति का खतरा भी उन्हें तरतीब से नहीं रख सका।”
स्किनर के घर में जहां हेडक्वार्टर था, वहां विल्सन के अफसर विल्सन को वापस रिज पर चले जाने से रोकने में मसरूफ थे। जब विल्सन ज़्यादा ही हताशा में होता, तो करनाल वापस जाने की भी बात करने लगा था। 15 सितंबर की रात को उसने अपनी बीवी को लिखा, “हम अब सिर्फ उन
जगहों को संभाले हुए हैं जिन पर हमने पहले क़ब्ज़ा कर लिया था। मेरे साथ के ज़्यादातर यूरोपियन ने दुकानों से ढेर सारी बीयर इकट्ठा कर ली है और अपने आपको बिल्कुल नाकारा बना लिया है… यह सड़कों की लड़ाई बहुत खौफनाक है। हमें ज़बर्दस्त नुक्सान पहुंचा है। अफसरों का भी और सिपाहियों का भी। मैं बिल्कुल थक चुका हूं और किसी तरह की मेहनत के लायक नहीं रहा हूं। कुल मिलाकर, हमारे हालात अच्छे नहीं हैं। मैं और ज़्यादा नहीं लिख सकता।”
उस वक्त शहर किसी तरफ भी जा सकता था। क्रांतिकारियों का एक ठोस जवाबी हमला खासतौर से ऐसा जो उस वक्त अंग्रेजों के असुरक्षित पिछले हिस्से पर किया जाता, या अगर वह रिज के कैंप पर कब्ज़ा कर लेते, तो अंग्रेजों को फौरन शहर से वापस जाने पर मजबूर कर देता। क्या हो सकता था यह 15 की शाम को जाहिर हुआ जब क्रांतिकारियों ने तोपों के साथ एक हल्का सा जवाबी हमला सलीमगढ़ के बुर्ज पर किया और अंग्रेजों को अपनी इस नई फतह की हुई जगह को छोड़कर फिर से दिल्ली कॉलेज के अपने पुराने ठिकाने पर वापस जाना पड़ा। लेकिन बहुत से बागी लीडरों और शहर के लोगों के लिए अच्छी तरह जवाबी लड़ाई कर पाने की नाकामी बहुत मायूसी का कारण थी, जो वक़्त गुजरने के साथ-साथ बढ़ती गई। कुछ और सिपाहियों ने वापस भागना शुरू कर दिया और कुछ निराश सिपाहियों पर दिल्ली वालों ने हमला कर दिया। वह उस बुरे बर्ताव की वजह से गुस्से में भरे बैठे थे, जो बागी सिपाहियों ने उन पर किया था इसलिए उन्होंने उनके हथियार छीन लिए, उन्हें जूतों से मारा और यह चिल्लाते हुए हर तरह से अपमानित किया कि “अब तुम्हारी वह बहादुरी कहां है, जिसकी तुम डींगें मारते थे? तुम्हारी ताकत को क्या हो गया कि अब तुम हम लोगों पर जुल्म करके हमें ख़ौफजदा नहीं कर सकते ?