1857 की क्रांति: बहादुर शाह जफर के पांचवे बेटे मिर्जा फखरू की मृत्यु और अवध के छीने जाने के बाद मुगल नस्ल का अंत नजदीक था। जफर के लिए जिनकी उम्र अब 81 साल की थी, यह बहुत बड़ा धक्का था। उन्होंने बहुत पहले ही यह कह दिया था कि अब उनकी और कोई ख़्वाहिश न थी सिवाय जो कुछ उनकी बची-खुची विरासत थी उसको अपने वारिसों के लिए महफूज रखने के।
उन्होंने 1843 में ही मलिका विक्टोरिया को ख़त लिखकर इस ” कम से कम” ख़्वाहिश का इज़हार किया था। “नासाज़गार हालात की वजह से मेरी सल्तनत का गुलशन मुरझा गया है और मेरे खानदान की मिल्कियत अब आपके हाथों में है कि चाहे आप इसकी इज्जत कम करें या बढ़ाएं। मैं अब बूढ़ा हो गया हूं और मुझे शानो-शौकत की कोई ख़्वाहिश नहीं है।
मैं अब अपनी जिंदगी के बाकी दिन दीन की ख़िदमत में गुज़ारना चाहता हूं लेकिन मुझे इसकी फिक्र है कि मेरे बुजुर्गों का नाम और इज़्ज़त बाकी रहे और मेरी नस्ल को यह विरासत उसी तरह मिले जैसा ब्रिटिश हुकूमत से शुरू में ही समझौता हुआ था।”
लेकिन अब अवध की मिसाल देखकर ज़फ़र ने अपनी मांग को और भी कम कर दिया था। अवध पर कब्ज़े की ख़बर सुनते ही उनका पहला क़दम डल्हौजी को कई दर्खास्त भरे ख़त लिखना था जिसमें उन्होंने कहा, “हमारे इस दुनियावी सफर के चंद दिन ही रह गए हैं। अस्सी साल की उम्र में अब जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं है। इसलिए अब हमको अपने ख़ानदान के भविष्य और सलामती की बहुत फिक्र है।
खासकर नवाब जीनत महल और उनके बेटे मिर्जा जवांबख़्त बहादुर की, और हम चाहते हैं कि उनको कोई तकलीफ न हो।” ज़फ़र सिर्फ यह गारंटी चाहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उन दोनों की अच्छी तरह देखभाल हो सके। लेकिन डल्हौजी का जवाब उसके किरदार की तरह तंगदिल और अनुदार था। उसने अपने एक सेक्रेट्री से लिखवा दिया कि “आपको खुद सोचना चाहिए कि जो वज़ीफ़ा आप बेगम और शाहज़ादे को देते रहे हैं वह हमेशा जारी नहीं रह सकता। हो सकता है कि आपकी ज़िंदगी तक मिलता रहे लेकिन उससे ज़्यादा नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह हमारी पिछली नीतियों के खिलाफ है। अकेले जफर ही इस खतरे से परेशान न थे।