1857 की क्रांति:  12 मई को शहर में जुलूस निकालने के बाद 13 मई को बहादुर शाह जफर ने फिर अपने शहर में हालात बेहतर करने की कोशिश की। कल जब उन्होंने खुद देखा था कि वहां कितनी तबाही हुई है, तो उनको अंदाज़ा हुआ था कि सबसे पहले तो यह जरूरी है कि उस आग को बुझाया जाए, जो अब तक जगह-जगह जल रही थी और खासकर जले हुए अस्लहाखाने के इर्द-गिर्द। यूं भी दिल्ली में बहुत से घर गारे के बने हुए थे, जिन पर खपरैल की छतें थी, और बड़े पक्के घरों में भी लकड़ी के छज्जे और जालियां थीं।

जहीर देहलवी ने कहा कि वह कोतवाल के पास जाकर उससे कहें कि वह कुछ लोगों को इकट्ठा करके आग बुझाने की कोशिश करे। बाद में वह लिखते हैं:

“क्योंकि मुझे लगता था कि अगर ख़ुदा नखास्ता बचे हुए बारूद में आग लग गई, तो पूरा शहर जल उठेगा। कोतवाल ने दो-तीन सौ भिश्ती भेजे और खुद करने आए। और हम सबने मिलकर बारूदखाने और घरों में जहां-जहां आग सुलग रही थी, उसको ठंडा किया। बड़ी खैर हुई कि हम वक्त पर यह कर पाए क्योंकि गोदाम के अंदर, दरिया किनारे वाले हिस्से में कोयले और बारूद का ढेर लगा था और कोई दो सौ भरी हुई तोपें रखी थीं और बंदूकों और पिस्तौलों का तो कुछ शुमार ही नहीं ही था, जो चारों तरफ बिखरे हुए थे। दो-तीन दिन के अंदर-अंदर पता चला कि गुंडों की टोलियों ने यह सब सामान गायब कर दिया और सिर्फ तोप के कुछ गोले पड़े रह गए। “हम सभी दरबारियों के लिए यह दिन बहुत खतरनाक थे। हमारे सर पर हरदम मौत की तलवार लटकती रहती थी और कई बार बागियों ने मुझे रोककर मेरे सीने पर पिस्तील तानी। गदर के कुछ दिन बाद एक बार हम बीस-पच्चीस लोग किले में शाही गोदाम में हकीम अल्लाह खां के साथ बैठे थे कि कई बागियों  ने हमें घेर लिया। उन्होंने अपनी बंदूकें हम पर तानी और कहा, ‘तुम सब काफिर हो हम जानते हैं | तुम चोरी-छिपे ईसाई बन चुके हो। तुम अंग्रेजों को खत लिखते हो हम सब दंग रह गए और उनसे कहा कि अगर यह सच है तो तुम हमको अभी और यहीं क्यों नहीं मार डालते। कम से कम इस रोजमर्रा की परेशानी और शक की मुसीबत से तो बच जाएंगे। उनमें से दो-तीन अफसर समझदार थे, उन्होंने दूसरों को समझा-बुझाकर ठंडा किया और वहां से चले जाने पर तैयार किया। लेकिन हम सब बुरी तरह डर गए थे।”

जहीर यह भी लिखते हैं कि किस तरह तीन-चार सौ सिपाही रोजाना दिल्ली में और आ जाते थे। और पहले से मौजूद सिपाहियों की तादाद बढ़ा देते थे। इस तरह कोई सात-आठ हज़ार लोग सारे हिंदुस्तान से आकर दिल्ली में इकट्ठा हो गए। “वह मजे उड़ाते, ऐश करते, रोज भंग चढ़ाते और लड्डू पेड़े खाते। उन्होंने खुद कुछ पकाना बिल्कुल छोड़ दिया था और दोनों वक्त चटपटी पूरी-कचौरी और मिठाई खाते और रात को आराम की नींद सोते। उन्होंने पूरी तरह से दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था और जो चाहते सो करते थे। हमारी सुनवाई करने वाला कोई नहीं था। बिल्कुल अंधेरी नगरी चौपट राजा वाला हाल था।

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