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1857 की क्रांति: दिल्ली में अंग्रेजी फौज और क्रांतिकारी एक दूसरे के आमने सामने थे। अंग्रेजों ने रिज पर अपना डेरा जमाया था। बरेली फौज के 4हजार से अधिक सिपाही दिल्ली पहुंचे अंग्रेजों से लोहा लेने। इसका नेतृत्व बख्त खां और सरफराज कर रहे थे। अंग्रेजी फौज जानती थी कि ये दोनों कितने प्रभावी है लेकिन किले में बहादुर शाह जफर और उनके सलाहकारों के दिल में कोई शुवहा नहीं था। उसके दिल्ली पहुंचने के अगले दिन ही सरफाज़ अली और बख्त खां किले में बुलाए गए और उनका शानदार स्वागत हुआ। उसी के दौरान बख्त खां की कुछ कमजोरियों का भी अंदाज़ा हुआ। बहुत से वहाबियों की तरह बख्त खां को भी सल्तनत के भौतिकवादी बादशाहों से बहुत नफरत थी, जिनको वह गैर-इस्लामी समझता था और उनके बदले एक बाकायदा इस्लामी हुकूमत का ख़्वाब देखता था।

बख्त खां और मौलवी अपने ढाई सौ अफसरों के साथ पूरी फौजी यूनिफॉर्म पहले किले में दाखिल हुए और असम्मानजनक ढंग से घोड़े से उतरे विना सीधे दीवाने-आम से गुजरकर बादशाह के खास कमरों तक पहुंच गए। यह जाहिर था कि मैदाने-जंग में बख्त खां की, जो भी खूबियां हों और चाहे वह कितना भी योग्य प्रबंधक हो, लेकिन उसमें राजनयिक गुण कतई नहीं थे। जल्द ही उसका बादशाह के दरबार में इतनी बदतमीजी का बर्ताव लोगों को खलने लगा। हकीम अहसनुल्लाह खान भी वहां मौजूद थे और उनको भी यह बिल्कुल पसंद नहीं आया। वह लिखते हैं:

“बख़्त खां बादशाह सलामत के सामने अपनी रेजिमेंट के अफसरों और क्रांतिकारियों  के साथ हाजिर हुआ। लेकिन दस्तूर के खिलाफ न तो उसने लाल पर्दे के सामने कोई सम्मान दिया और न ही उसके साथियों ने। हालांकि कई लोगों ने इस पर आपत्ति जताई लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की। जब वह दीवाने-खास में बादशाह के पास पहुंचा, तो उसने इस तरह सलाम किया जैसे कोई बराबर वाले को करता है और बस कमर से तलवार निकालकर उनके सामने पेश कर दी। बादशाह सलामत उसकी बेअदबी देखकर दंग रह गए। फिर भी उन्होंने उसके सिपाहियों की बहादुरी की तारीफ की…

“बख़्त खां के दो अफसरों ने कहा, ‘बादशाह सलामत को एक तलवार और पेटी बख्त खां को इनायत करनी चाहिए। क्योंकि इतने बड़े अफसर होने की हैसियत से वह इसके हकदार हैं।’ पहले तो बादशाह ने यह कहकर टालना चाहा कि वह अभी तैयार नहीं हैं, लेकिन बहुत जिद किए जाने के बाद उन्होंने वह अस्लहाखाने से मंगवाकर उसको इनायत कर दीं। फिर भी उसने बादशाह को कोई नजर नहीं पेश की बल्कि गुस्ताखी से उनसे कहा, ‘सुना है आपने शहजादों को फौज पर पूरा अधिकार दे दिया है। यह बात ठीक नहीं है। यह अधिकार आप मुझे दें और में खुद सारी व्यवस्था करूंगा। उन लोगों को अंग्रेजी फौज के रिवाजों का क्या अंदाज़ा है?” बादशाह ने जवाब दिया कि शहजादों को फौज के अफसरों की दर्खास्त पर यह ओहदा दिया गया था। उसके बाद बख्त खां को बर्खास्त कर दिया गया।

उसके बर्ताव के बावजूद ज़फर को अभी तक यह ख्याल था कि बहुत खां पर भरोसा किया जा सकता है। और अगले चंद दिनों में उन्होंने उसे ‘फरजन्द’ (बेटा) और ‘साहिबे-आलम’ के खिताब दिए और उसे भूतपूर्व कमांडर-इन-चीफ मिर्जा मुगल की जगह सारी बागी फौजों की मुकम्मल कमांड दे दी। बाद में जफर ने उसे गवर्नर जनरल भी नियुक्त कर दिया और मिर्ज़ा मुगल को एजूटेंट जनरल बना दिया। जिसके तहत मिर्जा मुगल फौज के कमांडर होने के बजाय प्रशासन के प्रमुख बन गए। इसके बदले में बख़्त खां ने बहुत उत्साहपूर्वक वह सारे मसले हल करने की कोशिश की, जिसने क्रांतिकारियों  की फौज को बावजूद बहुत ज़्यादा तादाद में होने के अंग्रेजों की छोटी सी फौज के सामने नाकारा कर दिया था। उसने शहर में क्रांतिकारियों  की लूटमार के मसले को भी हल करने की कोशिश की और उन सबको तंख्वाह शाही खजाने से देने की व्यवस्था की। कोतवाल और पुलिस को बहुत सख्त निर्देश दिए गए कि सब लूटने वालों को गिरफ्तार कर लें, और सारे सिपाहियों को बाजारों से निकालकर दिल्ली दरवाजे के बाहर नए कैंप में ठरहाया गया।

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