1857 की क्रांति: 11 मई, 1857 इस्लामी कैलेंडर में रमजान के महीने का 16वां दिन था जो रोज़ा रखने और प्रायश्चित करने का महीना। इस महीने में दिल्ली शहर की जिंदगी की लय बदल जाती है। दिन बहुत जल्द शुरू होता है यानी सूरज निकलने से एक घंटा पहले जब चांद आसमान पर अभी भी नज़र आता है। जामा मस्जिद में बार-बार घंटा बजने से लोगों की आंख खुलती है। सब जगह रोशनियां जल जाती हैं और सहरी पकाने की तैयारी शुरू होने लगती है। जो लोग अभी तक सो रहे होते हैं उनके घर फकीर जाकर दस्तक देते हैं और इस तरह कुछ पैसे कमा लेते हैं। दिन भर के लिए कुछ खाने का, या पानी का एक क़तरा भी पीने का कम से कम बारह घंटे बाद सूरज के डूबने तक यह आखरी मौका होता है।’
सख्त गर्मी का मौसम शुरू हो चुका था और दिल्ली की घुटन और लू ज़ोरों पर थी। सूरज निकलने से पहले मुसलमान घरानों में लोग बाहर सहन में गावतकियों से टिके होते या सहरी खा रहे होते, मीठी सिवइयां या जिनको इतनी सुबह भूख लग सकती हो वह कबाब भी। सब जल्दी-जल्दी खाया जाता ताकि किले से सहरी ख़त्म होने के गोले की आवाज़ आने से पहले ख़त्म हो जाए। उन लू चलने के दिनों में इतने सवेरे, सुबह की ठंडी हवा से बड़ी राहत मिलती थी।
लाल किले में बहादुर शाह जफर सात बजे तक अपना नाश्ता ख़त्म कर चुके थे और नदी की ओर बने तस्बीहखाने में नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज़ ख़त्म करके वह उठ खड़े हुए और लकड़ी की टेक से आगे बढ़े तो उन्होंने देखा कि दाई ओर से दरिया के दूर वाले किनारे पर बने कश्तियों के पुल के सामने एक धुएं का मीनार टोल हाउस के सामने उठ रहा है जो निकलते सूरज की रोशनी में साफ़ नज़र आ रहा था। और भी अंदेशे की बात यह थी कि यमुना का किनारा भी धूल की वजह से गायब हो रहा था। उनके एक नौजवान दरबारी ज़हीर देहलवी का कहना है कि ज़फ़र ने किले के पालकीबरदारों के सरदार मीर फतेह अली को पुकारा जो उन्हें किले के दौरे पर ले जाने के लिए बाहर इंतज़ार कर रहे थे, और उनसे कहा कि फ़ौरन एक तेज ऊंट सवार भेजकर मालूम करवाएं कि उस धुएं और धूल की क्या वजह है। फिर उन्होंने अपने वज़ीरे-आजम अहसनुल्लाह खां को और किले के पहरेदारों के कमांडेंट कैप्टन डगलस को जो किले की हिफाजत के लिए रेजिडेंट की तरफ से ज़िम्मेदार थे बुलवाने के लिए किसी को भेजा ।”
जब तक हकीम साहब और कमांडेंट पहुंचें, उससे पहले ही संदेशवाहक वापस आ चुका था। वह सलीमगढ़ के किले तक ही पहुंचा था जो किले से कुछ हज़ार गज़ दूर ही था कि उसने देखा कि हिंदुस्तानी सवार फ़ौज के कुछ दस्ते, कंपनी की यूनिफॉर्म पहने, कश्तियों के पुल से तलवारें ताने इधर ही चले आ रहे थे।
वह पहले ही पूर्वी किनारे के टोल हाउस को लूटकर उसमें आग लगा चुके थे। और उन्होंने टोल वसूल करने गुज़रकर अपनी वाले और शहर के तारघर के मैनेजर चार्ल्स टॉड पर हमला करके उनका कत्ल कर दिया था। टॉड आधा घंटा पहले ही अपनी बग्घी में उस तरफ जाने के लिए निकला था, ताकि मालूम करे कि मेरठ से लाइन न मिल सकने की क्या वजह है।
रास्ते में सवारों को जो भी अंग्रेज़ों के नौकर दिखाई दिए उनको भी काट डाला गया। संदेशवाहक ने यह भी बताया कि जो लोग सुबह-सुबह यमुना के घाट पर स्नान करने आए थे वह भी घबराहट में वहां से भाग रहे हैं और किले के उत्तर में कलकत्ता दरवाज़े से शहर में दाखिल होने की कोशिश कर रहे हैं। यह सुनकर ज़फ़र ने फौरन हुक्म दिया कि शहर और किले के सब दरवाजों को बंद कर दिया जाए और अगर बहुत देर न हों गई हो तो कश्तियों वाले पुल को भी तोड़ दिया जाए।’
अहसनुल्लाह खां और कैप्टन डगलस ज़फ़र की यह नाटकीय ख़बर सुनकर परेशान ज़रूर हुए लेकिन कुछ ख़ास ताज्जुब नहीं हुए। न सिर्फ यह कि फौज की बगावत की अफवाहें किले में महीनों से उड़ रही थीं और हाल में और भी ज़्यादा तफ्सील के साथ और ज़ोरदार ढंग से’, बल्कि बीस मिनट पहले ही डगलस को किले के पहरेदारों ने लाहौरी दरवाज़े पर बुलाकर उसको बताया था कि एक घुड़सवार सिपाही बहुत गड़बड़ कर रहा है। डगलस फौरन अपने उस कमरे से उतरकर आया जहां वह पादरी जेनिंग्स के साथ किले के दरवाज़े के ऊपर रह रहा था और पूछा कि क्या बात है और वह क्या चाहता है। उस सिपाही ने बहुत बेपरवाही से जवाब दिया कि उसने मेरठ में बगावत कर दी है और वह और उसके भाई अब कंपनी की नौकरी नहीं करेंगे। उसने कहा कि अब वह वक्त आ गया है कि वह अपने मज़हब के लिए जंग करें। और अब जो वह दिल्ली आ गया है तो वह किले में पानी की तलाश में आया है और डगलस को चाहिए कि वह उसके लिए ये चीजें लेकर आए। डगलस ने पहरेदारों को हुक्म दिया कि फ़ौरन उस गुस्ताख़ सिपाही को गिरफ़्तार कर लिया जाए, लेकिन उससे पहले ही वह हंसता हुआ अपना घोड़ा बढ़ाकर भाग गया। हकीम भी उस वक़्त किले के अंदर के बाज़ार से निकलकर देखने आ रहे थे कि क्या तमाशा हो रहा है कि उसी वक्त ज़फ़र का बुलावा आ गया। और दोनों साथ ही ज़फ़र के तस्बीहखाने पहुंचे।
उधर यह तीनों लोग अभी मशवरा कर ही रहे थे कि अब क्या किया जाए कि बीस सवारों का एक दस्ता इत्मीनान से उस सड़क से गुज़र रहा था जो किले और यमुना के बीच में थी। कुछ के हाथ में खिंची हुई तलवारें थीं और और कुछ बंदूकें और पिस्तौल उठाए थे। उनके पीछे पुल की तरफ से और भी सवार चले आ रहे थे और कुछ पैदल लोग सर पर गठरियां उठाए जो शायद साईस थे।’ कुछ ही दूरी पर मेरठ जेल के कैदियों की टोलियां थीं और गुज्जर क़बीले के लोग और दिल्ली के आसपास के गांव के कुछ बदमाश जवान सिपाहियों के पीछे लग लिए थे।’ वह सब सिमन बुर्ज के सुनहरी जालीदार गुंबद के नीचे रुक गए, जहां मुग़लों ने सदियों से लोगों की अर्जियां सुनी थीं। अब सबने ज़ोर-ज़ोर से बादशाह का नारा लगाना शुरू कर दिया। घटना के बारे में ज़फ़र के अपने रिकॉर्ड के अनुसार, उनका कहना था कि “हम मेरठ से सब अंग्रेज़ों को कत्ल करके यहां आए हैं क्योंकि वह हमसे कहते थे कि उन गोलियों को मुंह से काटो जिस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी है। इससे हिंदुओं और मुसलमानों दोनों ही का धर्म भ्रष्ट होता है।
यह सुनकर डगलस ने कहा कि वह नीचे जाकर उनसे बात करेंगे लेकिन बादशाह ने उनको मना कर दिया क्योंकि वह बगैर किसी हथियार के थे और उन लोगों के सिर पर खून सवार था। वह उनको भी क़त्ल कर देते । “मैंने उनको नहीं जाने दिया ।”” जब किलेदार बहादुर डगलस ने खिड़की से सर निकाल कर उनसे बात की और कहा, “तुम यहां नहीं खड़े हो सकते। यह किले की औरतों के रहने की जगह है और यहां तुम्हारा खड़ा होना बादशाह की बेइज्जती करना है,” तो वह लोग बददिली से एक-एक करके राजघाट की तरफ चले गए।”
‘और फिर,’ ज़फ़र का कहना है, ‘किलेदार साहब ने कहा कि मैं जाकर इस मामले से निबटता हूं, और फिर उन्होंने मुझसे जाने की इजाज़त मांगी।”
डगलस बहुत जोश के आलम में वहां से रवाना हुआ, ये देखने के लिए कि हुक्म के मुताबिक शहर के सब दरवाज़ों को बंद कर दिया गया है या नहीं। लेकिन कुछ ही मिनटों के बाद ज़फ़र ने अपनी छत से दक्षिण की तरफ से गहरे काले धुएं के बादल उठते देखे। शहर के सबसे शानदार इलाके दरियागंज की तरफ़ से, जहां पांच साल पहले वह अपने खानदान के साथ जवांबख़्त की बरात में गए थे। ज़फ़र जान गए कि सिपाही उनके शहर के अंदर दाखिल हो चुके हैं।